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________________ १. सीलनिद्देस मुखसम्भाविको, अयं समणो इमासं एवरूपानं सन्नतानं विहारसमापत्तीनं लाभी ति एतादिसं गम्भीरं गूळ्हं निपुणं पटिच्छन्नं लोकुत्तरं सुञतापटिसंयुत्तं कथं कथेति। या एवरूपा भाकुटिका, भाकुटियं, कुहना, कुहायना, कुहितत्तं-इदं सामन्तजप्पनसङ्खातं कुहनवत्थू" (खु० ४:१-१८९) ति। पापिच्छस्सेव पन सतो सम्भावनाधिप्पायकतेन इरियापथेन विम्हापनं इरियापर : सन्निस्सितं कुहनवत्थू ति वेदितब्बं । यथाह-"कतमं इरियापथसङ्घातं कुहनवत्थु? इधेकच्चो पापिच्छो इच्छापकतो सम्भावनाधिप्पायो ‘एवं मं जनो सम्भावेस्सती' ति गमनं सण्ठपेति, ठानं सण्ठपेति, निसज्जं सण्ठपेति, सयनं सण्ठपेति, पणिधाय गच्छति, पणिधाय तिद्वति, पणिधाय निसीदति, पणिधाय सेय्यं कप्पेति, समाहितो विय गच्छति, समाहितो विय तिट्ठति, निसीदति, सेय्यं कप्पेति, आपाथकज्झायी च होति, या एवरूपा इरियापथस्स अट्ठपना, ठपना, सण्ठपना, भाकुटिका, भाकुटियं, कुहना, कुहायना, कुहितत्तं-इदं इरियापथसङ्खातं कुहनवत्थू" (खु० ४:१-१८९) इति। तत्थ पच्चयपटिसेवनसङ्खातेना ति। पच्चयपटिसेवनं ति एवं सङ्घातेन, पच्चयपटिसेवनेन वा सङ्घातेन। सामन्तजप्पितेना ति। समीपभणितेन। इरियापथस्स वा ति। चतुइरियापथस्स। अट्ठपना ति। आदि ठपना, आदरेन वा ठपना। ठपना ति। ठपनाकारो। विस्मय में डालने वाला (कुहक), अत्यधिक वाचाल (लपक लप्फेबाज), मुख के हाव-भाव मात्र से गम्भीर (मुखसम्भाविक). या ऐसी बातें करने वाला हो जिनसे ऐसा ज्ञात होने लगे कि मानो यह श्रमण गम्भीर, निपुण, प्रच्छन्न, लोकोत्तर, शून्यतासम्बद्ध निर्वाण तक पहुंच गया हो। यह जो उपर्युक्त मुखाकृति आदि में विस्मयकारक परिवर्तन... हैं-यही 'सामन्तजल्पन' संज्ञक कुहनवस्तु कहलाता __"वैसी ही अशुभ भावना (सङ्कल्प) रखने वाला पापेच्छु भिक्षु, लोक में अपना सम्मान बढ़ाने के उद्देश्य से, अपने ईर्यापथ (चाल-ढाल) में भी ऐसे-ऐसे विस्मयकारक परिवर्तन करता रहता है। इन परिवर्तनों को ही ईर्यापथसम्बन्धी कुहनवस्तु' समझना चाहिये। जैसे कि (वहीं महानिद्देस में) कहा है-"ईर्यापथसम्बन्धी कुहनवस्तु क्या है? यहाँ कोई पापेच्छु, स्वच्छन्दचारी, लोक में अपना सम्मान बढ़ाने के उद्देश्य से कि लोग मुझे और अधिक पूजा-सम्मान की दृष्टि से देखें, अपने ईर्यापथ में ऐसे ऐसे परिवर्तन करता है कि कुछ विशेष प्रकार से चलता है, विशेष प्रकार से चलते-चलते रुकता है, विशेष प्रकार से बैठता है, विशेष प्रकार के आसन लगाता है; सोता है; कुछ सोचता हुआ सा चलता है, सोचता हुआ सा ठहरता है, सोचता हुआ सा बैठता है, सोचता सा सोने का अभिनय करता है; (यह दिखाने के लिये कि लोग उसे समाहित समझें) समाधिस्थ (ध्यायी) सा चलता है, ठहरता है, बैठता है और सोता है। बीच रास्ते में जहाँ आने जाने वाले लोगों की दृष्टि पड़ती रहे ध्यान लगा कर बैठे हुए का सा अभिनय करता है-उसकी यह जो ऐसी चाल-ढाल है उसका तौर तरीका है, अपने लिये लोगों को आश्चर्यचकित करने की प्रवृत्ति है- यही 'ईर्यापथसम्बन्धी कुहनवस्तु' कहलाती है।" [ऊपर "तत्थ कतमा कुहना?" आदि पालिपाठ में (१०३४-३५) आये कुछ विशेष शब्दों का व्याख्यान यों समझना चाहिये-] वहाँ पच्चयपटिसेवनसमातेन- 'प्रत्ययप्रतिसेवन' इस नाम या इस रूप से कहे जाने वाले से। सामन्तजप्पितेन-समीप (सम्मुख) कथन से। इरियापथस्स-चार ईर्यापथ (१. सोना, २. बैठना, ३. चलना एवं ४. खड़ा होना) का। अपना- आदि (प्रारम्भिक) स्थापना या आदर के साथ
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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