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________________ ३८ विशुद्धिमग्ग चीवरं पटिग्गहाति, बहुं पि पिण्डपातं.... पे०.... भेसज्जपरिक्खारं पटिग्गण्हाति । या एवरूपा भाकुटिका, भाकुटियं कुहना, कुहायना, कुहितत्तं - इदं वुच्चति पच्चयपटिसेवनसङ्घातं कुहनवत्थू" (खु० ४ : १ - १८८ ) ति । पापिच्छस्सेव पन सतो उत्तरिमनुस्सधम्माधिगमपरिदीपनवाचाय तथा तथा विम्हापनं सामन्तजप्पनसङ्खातं कुहनवत्थू ति वेदितब्बं । यथाह - " कतमं सामन्तजप्पनसङ्घातं कुहनवत्थु ? इधेकच्चो पापिच्छो इच्छापकतो सम्भावनाधिप्पायो - ' एवं मं जनो सम्भावेस्सती' ति, अरियधम्मसन्निस्सितं वाचं भासति । 'यो एवरूपं चीवरं धारेति, सो समणो महेसक्खो' ति भणति । 'यो एवरूपं पत्तं, लोहथालकं, धम्मकरणं, परिस्सावनं, कुञ्चिकं, कायबन्धनं, उपाहनं धारेति, सो समणो महेसक्खो' ति भणति । 'यस्स एवरूपो उपज्झायो, आचरियो, समानुपज्झा-यको, समानाचरियको, मित्तो, सन्दिट्ठो, सम्भत्तो, सहायो....'। 'यो एवरूपे विहारे वसति अड्डयोगे, पासादे, हम्मिये, गुहायं, लेणे, कुटिया, कूटागारे, अट्टे, माळे, उड्डण्डे, उपट्ठानसालायं, मण्डपे, रुक्खमूले वसति, सो समणो महेसक्खो' ति भणति । अथ वा कोरजिककोरजिको भाकुटिकभाकुटिको कुहककुहको, लपकलपको, अनुकम्पा कर मैं इस (देयवस्तु) को ले लेता हूँ।' इस तरह वह उनसे अपनी आवश्यकता से अधिक चीवर... भोजन शयनासन पथ्य भैषज्यपरिष्कार ग्रहण करता है। इस प्रकार उस भिक्षु का यह शारीरिक अभिनय (भाकुटिका मुँह के हाव-भाव से दूसरों को भ्रम में डालना), मुखविक्षेप (ढोंग रचना), विस्मय में डालना, विस्मयक्रिया, आश्चर्यचकित करना - 'प्रत्ययप्रतिसेवनकुहनवस्तु' कहलाता है।' किसी के द्वारा अशुभसङ्कल्प होते हुए भी अपने विषय में लोकोत्तर मनुष्यगुणों (उत्तरिमनुस्सधम्म) की प्राप्ति की डींग हाँकना, वैसी बातें करना, वैसा शारीरिक अभिनय करना ही 'सामन्तजल्पन' नामक कुहनवस्तु समझना चाहिये। जैसा कि 'महानिद्देस' ग्रन्थ में आगे कहा गया है "सामन्तजल्पन नामक कुहनवस्तु क्या है ? यहाँ कोई पापेच्छुक, स्वच्छन्दचारी, लोक में सम्मानप्राप्ति के उद्देश्य से यह सोचकर कि लोग इस तरह मेरे द्वारा कहे जाने से मेरा सम्मान करेंगेअपने द्वारा आचरित आर्यधर्म के विषय में बढ़ा-चढ़ा कर बातें करता है। वह अपने पहने हुए चीवर की तरफ संकेत कर कहता है-'जो इस तरह चीवर धारण करता है वह श्रमण महान् आनुभाव (चमत्कार) वाला है, जो ऐसा पात्र रखता है, लोहे का कटोरा, जल छानने का भाजन (पात्र), कूए आदि से जल निकालने का बरतन ( परिस्सावन), कुञ्जी, कमरबन्द (कायबन्ध) या जूते ( उपानह) धारण करता है वह महान् चमत्कारी होता है; जिसके ऐसे उपाध्याय आचार्य हो, या उन उपाध्याय आचार्य से पढ़ने वाले सहपाठी हों, सहायक हों, परिचित हों, घनिष्ठ मित्र हों, साथी हों..... जो ऐसे विहार में रहकर साधना करता है, गरुड़ पड़ के समान घर (अनुयोग' में... प्रासाद या हर्म्य (महल) में... गुफा में, पर्वतगकर (लेण) में, कुटिया में, कूटागार (शिखर वाले बड़े घर) में, अट्टालिका (अट्ट में, इकमंजिले मकान (माळ) में, दीर्घशाला (उड्डण्ड) में, भिक्षुओं के लिये बनी उपस्थानशाला में, मण्डप में या वृक्षमूल के नीचे रहता है वह श्रमण महान् चमत्कारी होता है।' अथवा वह गृहस्थ के सामने अपने शरीर व मुखाकृति के ऐसे हाव-भाव दिखाता है कि उनको ऐसा लगे कि यह श्रमण सांसारिक व्यवहार में (उसे आध्यात्मिक साधनों में विकारक समझकर) चिड़चिड़ा सा (कोरजिक), स्वमुखाकृति में नये नये हाव-भाव उत्पन्न करने वाला (भाकुटिक): अपने हावभावों से अत्यधिक १. 'सुवण्णवसदनं अनुयोगो सियाथ च ' - अभिधानप्प० ३६ पृ० । २. अट्टो त्वट्टालको भवे' - अभिधानप्प०, पृष्ठ ३५ । ३. एककूटयुतो माळो ́ - अभिधानप्प०, पृष्ठ ३६ ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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