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१. सीलनिद्देस पच्चक्खाति, सेनासनं पच्चक्खाति, गिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारं पच्चक्खाति । सो एवमाह'किं समणस्स महग्घेन चीवरेन ? एतं सारुप्पं यं समणो सुसाना वा सङ्घारकूटा वा पापणिका वा नन्तकानि उच्चिनित्वा सङ्घाटिं कत्वा धारेय्य । किं समणस्स महग्घेन पिण्डपातेन ? एतं सारूपं यं समणो उच्छाचरियाय पिण्डियालोपेन जीविकं कप्पेय्य । किं समणस्स महग्घेन सेनासनेन ? एतं सारूप्पं यं समणो रुक्खमूलिको वा अस्स, अब्भोकासिको वा । किं समणस्स महग्घेन गिलानपच्चय- भेसज्जपरिक्खारेन ? एतं सारूप्पं यं समणो पूतिमुत्तेन वा हरीटकीखण्डेन वा ओसधं करेय्या' ति । तदुपादाय लूखं चीवरं धारेति, लूखं पिण्डपातं परिभुञ्जति, लूखं सेनासनं पटिसेवति, लूखं गिनापच्चयभेसज्जपरिक्खारं पटिसेवति । तमेनं गहपतिका एवं जानन्ति - 'अयं समणो अप्पिच्छो सन्तुट्ठो पविवित्तो असंसट्टो आरद्धविरियो धुवादो' ति । भिय्यो भिय्यो निमन्तेन्ति चीवर .... पे०.... परिक्खारेहि। सो एवं आह'तिण्णं सम्मुखीभावा सद्धो कुलपुत्तो बहुं पुञ्ञ पसवति, सद्धाय सम्मुखीभावा सद्धो कुलपुत्तो बहुं पुत्रं पसवति, देय्यधम्मस्स... पे०.... दक्खिणेय्यानं सम्मुखीभावा सद्धो कुलपुत्तो बहुं पुञ्ञ पसवति । तुम्हाकं चेवायं सद्धा अत्थि, देय्यधम्मो च संविज्जति, अहं च पटिग्गाहको; सचेहं न पटिग्गहेस्सामि, एवं तुम्हे पुञ्ञेन परिबाहिरा भविस्सथ, न मय्हं इमिना अत्थो, अपि च तुम्हाकं येव अनुकम्पाय पटिग्गहामी' ति । तदुपादाय बहुं पि
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लिये निमन्त्रित करे। वह अशुभ का सङ्कल्पक, इच्छाचारी भिक्षु चीवर...परिष्कार को मन से चाहते हुए भी अधिक से अधिक प्राप्ति की इच्छा से, चीवर का ग्रहण करना, पिण्डपात...... शयनासन ग्लानप्रत्यय. भैषज्यपरिष्कार को ग्रहण करना अस्वीकार कर देता है। और वह यों कहता है- 'श्रमण को ऐसे महार्घ (मूल्यवान् ) चीवर से क्या प्रयोजन! उसे तो श्मशान या घूरे (कूड़े के ढेर) पर पड़े या बाजार में दुकान से बाहर फेंके हुए फटे पुराने कपड़ों को बीन कर, गुदड़ी (सङ्घाटि) बनाकर, धारण करना चाहिये। श्रमण को ऐसे महार्घ, उत्तम पिण्डपात से क्या प्रयोजन! उसे तो खेतों में धान कटाई के समय गिरे अन्न (उञ्छ) बीन-बीन कर या गाँव में घर-घर घूमकर भिक्षा में प्राप्त ग्रास दो ग्रास रूप अन्न से अपना जीवन-निर्वाह करना चाहिये। उसे मूल्यवान् शयनासन की प्राप्ति से क्या लाभ ! उसे तो किसी वृक्ष या खुले आकाश के नीचे ही रात बितानी चाहिये। इसी तरह उसे महँगे - महँगे पथ्य एवं भैषज्यपरिष्कार से क्या लेना-देना! उसे तो गोमूत्र ( = पूतिभूत्र) या हर्रे के चूर्ण से ही अपने रोग की चिकित्सा कर लेनी चाहिये।' अपने इस कथन के अनुरूप ही वह भिक्षु गृहस्थों को दिखाने के लिये फटे-पुराने कपड़ों के कठोर शयनासन पर सोता है, एवं रुग्ण होने पर, रूखा-सूखा पथ्य एवं साधारण औषधियाँ सेवन करता है। तब वे गृहस्थजन उसके इस आचरण से प्रभावित हो, उसके विषय में यों सोचने लगते हैं- 'अरे! यह श्रमण तो अत्यन्त अल्पेच्छ, यथालाभसन्तुष्ट, संयमी एवं एकान्तवासी, कुशल के लिये उद्योगरत तथा त्यागी (अपरिग्रही) है।' यो उसके प्रति और भी श्रद्धालु होकर उसे बार-बार चीवर, पिण्डपात, शयनासन, पथ्य एवं औषधि लेने के लिये निमन्त्रित करते हैं। तब वह उनसे कहता है- "तीन बातों के एक ही स्थान पर इकट्ठा मिल जाने पर श्रद्धालु कुलपुत्र को बहुत पुण्य अधिगत होता है, जैसे- १. श्रद्धा उपस्थित होने पर... २. दान का अवसर एवं ३ . दान का उचित पात्र मिल जाने पर श्रद्धालु कुलपुत्र को बहुत पुण्य प्राप्त होता है। तुम में श्रद्धा है, दानयोग्य वस्तु और दान का अवसर भी उपस्थित है और मेरे जैसे उस दान का प्रतिग्राहक भी उपस्थित है, ऐसे में यदि मैं आप से उस देय वस्तु को न लूँ तो आप लोग इस पुण्यप्राप्ति से दूर ही रह जाओगे ! यद्यपि मुझे इस वस्तु की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है, परन्तु तुम पर
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