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________________ ३६ विसुद्धिमग्ग इमिस्सा पन पाळिया एवं अत्थो वेदितब्बो। कुहननिद्देसे ताव लाभक्कारसिलोकसनिस्सितस्सा ति। लाभं च सकारं च कित्तिसदं च सन्निस्सितस्स, पत्थयन्तस्सा ति अत्थो। पापिच्छस्सा ति। असन्तगुणदीपनकामस्स। इच्छापकतस्सा ति। इच्छाय अपकतस्स, उपद्रुतस्सा ति अत्थो। इतो परं यस्मा पच्चयपटिसेवनसामन्तजप्पनइरियापथसन्निस्सितवसेन महानिद्देसे तिविधं कुहनवत्थु आगतं, तस्मा तिविधं पेतं दस्सेतुं पच्चयपटिसेवनसङ्घातेन वा ति एवमादि आरद्धं । तत्थ चीवरादीहि निमन्तितस्स, तदत्थिकस्सेव सतो पापिच्छतं निस्साय पटिक्खिपनेन, ते च गहपतिके अत्तनि, सुप्पतिट्ठितसद्ध ञत्वा पुन तेसं 'अहो, अय्यो अप्पिच्छो न किञ्चि पटिग्गण्हितुं इच्छति, सुलद्धं वत नो अस्स सचे अप्पमत्तकं पि किञ्चि पटिग्गण्हेय्या' ति नानाविधेहि उपायेहि पणीतानि चीवरादीनि उपनेन्तानं तदनुग्गहकामतं येव आविकत्वा पटिग्गहणेन च ततो पभुति अपि सकटभारेहि उपनामनहेतुभूतं विम्हापनं पच्चयपटिसेवनसवातं कुहनवत्थू ति वेदितब्बं । वुत्तं हेतं महानिद्देसे "कतमं पच्चयपटिसेवनसङ्खातं कुहनवत्थु? इध गहपतिका भिक्खं निमन्तेन्ति चीवर-पिण्डपात-सेनासन-गिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि। सो पापिच्छो इच्छापकतो अस्थिको चीवर....पे०.... परिक्खारानं भिय्योकम्यतं उपादाय चीवरं पच्चक्खाति, पिण्डपातं इस पालिपाठ का और भी अधिक स्पष्ट अर्थ यों जानना चाहिये-'कुहना' के निर्देश (व्याख्यान) में जो लाभसक्कारसनिस्सितस्स समस्त पद आया है उसका स्पष्टार्थ यह है-लाभसत्कार-श्लोक (यश, कीर्तिशब्द) की ओर झुकाव रखने वाले का या उन्हें चाहने वाले का। पापिच्छस्स का अर्थ है-जो गुण स्वयं में नहीं है उनका भी अपने में दिखावा करना चाहने वाले का। इच्छापकतस्स का अर्थ है-इच्छा के शिकार का या इच्छाओं से त्रस्त (उपद्रुत) का। इसके आगे, क्योंकि महानिदेस (त्रिपिटकके अन्तर्गत एक ग्रन्थ) में प्रत्ययप्रतिसेवन, सामन्तजल्पन' एवं ईर्यापथ के रूप में- त्रिविध कुहनवस्तु वर्णित हैं अतः इन तीनों का ही परिगणन करने के लिये पच्चयपटिसेवनसशात आदि पदों से वर्णन प्रारम्भ किया गया है। वहाँ किसी भिक्षु को चीवर आदि के ग्रहण के लिये निमन्त्रित किया जाता है, वहाँ वह भिक्षु वस्तुतः उस चीवर को पाना चाहते हुए भी अधिक पाने की बुरी इच्छा (नियत) से उस चीवर को अस्वीकार कर देता है, बाद में उन गृहपतियों को अपने प्रति अटल श्रद्धा रखने वाला जानकर और उनके (इस प्रकार कहने या सोचने पर-)'अरे! हमारे ये आर्य तो अत्यन्त अल्पेच्छ हैं, कुछ भी स्वीकार करना नहीं चाहते; यदि वे अल्पमात्र भी कुछ ले लें तो हम अपना अहोभाग्य समझें; इस प्रकार अनेक उपायों से सुन्दरसुन्दर चीवर आदि लाने पर, उन पर अनुग्रह का भाव दिखाते हुए, उन्हें ले लेता है। फिर एक बार लेने के बाद तो उसका क्या कहना है! तब से उसके द्वारा गाड़ी भर वस्तुएँ ले जाने का कारण बना उसका वह विस्मयकारक पाषण्ड ही यहाँ 'प्रत्ययप्रतिसेवन कुहन वस्तु' के रूप में जानना चाहिये। महानिद्देस ग्रन्थ में यह कहा गया है "प्रत्ययप्रतिसेवन नामक कुहन वस्तु क्या है? यहाँ कोई गृहपति किसी भिक्षु को चीवर, पिण्डपात, शयनासन, ग्लानप्रत्यय (पथ्य), चिकित्सार्थ औषध (भैषज्यपरिष्कार) स्वीकार करने के १. अपने आप को लोकोत्तर सिद्धि प्राप्त अर्हतों के समान घोषित करना 'सामन्त-जल्पन' कहलाता है। -
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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