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________________ ३४ विसुद्धिमग्ग (ग) आजीवपारिसुद्धिसीलं ३१. इदानि इन्द्रियसंवरसीलानन्तरं वुत्ते आजीवपारिसुद्धिसीले आजीवहेतु पञ्चत्तानं छन्नं सिक्खापदानं ति यानि तानि १. "आजीवहेतु आजीवकारणा पापिच्छो इच्छापकतो असन्तं अभूतं उत्तरिमनुस्सधम्मं उल्लपति, आपत्ति पाराजिकस्स; २. आजीवहेतु आजीवकारणा सञ्चरितं समापज्जति, आपत्ति सङ्घादिसेसस्स; ३. आजीवहेतु आजीवकारणा'यो ते विहारे वसति, सो भिक्खु अरहा' ति भणति, पटिविजानन्तस्स आपत्ति थुल्लच्चयस्स; ४. आजीवहेतु आजीवकारणा भिक्खू पणीतभोजनानि अगिलानो अत्तनो अत्थाय विज्ञापेत्वा भुञ्जति, आपत्ति पाचित्तियस्स;५. आजीवहेतु आजीवकारणा भिक्खुनी पणीतभोजनानि अगिलानो अत्तनो अत्थाय विआपेत्वा भुञ्जति, आपत्ति पाटिदेसनियस्स, ६. आजीवहेतु आजीवकारणा सपं वा ओदनं या अगिलानो अत्तनो अत्थाय विज्ञापेत्वा भुञ्जति, आपत्ति दुकटस्सा" (वि०५-१८१) ति एवं पञत्तानि छ सिक्खापदानि, इमेसंछ सिक्खापदानं। . कुहना ति आदीसु अयं पाळि-"तत्थं कतमा कुहना? लाभसकारसिलोकसनिस्सितस्स पापिच्छस्स इच्छापकतस्स या पच्चयपटिसेवनसलातेन वा सामन्तजप्पितेन वा इरियापचया वा अट्ठपना, ठपना, सण्ठपना, भाकुटिका, भाकुटियं, कुहना, कुहायना, कुहितत्तं-अयं वुच्चति कुहना। (ग) आजीवपारिशुद्धिशील ३१. अब 'इन्द्रियसंवरशील' के बाद कहे 'आजीविकापरिशुद्धिशील' में आजीविका के निमित्त प्राप्त छह शिक्षापदों का (व्याख्यान किया जा रहा है)। वे (क्रमशः) ये हैं- १. आजीविका (जीवनयापन) के लिये या आजीविका के कारण पापमय इच्छा रखने वाला, यथेच्छ आचरण करने वाला, अपने में अविद्यमान व अयथार्थ लोकोत्तर मनुष्यधर्म (परा मानवीय स्थिति) होने का दावा (उद्घोष) करता है उसे 'पाराजिक' आपत्ति होती है (वि०पि० १-४)। २. जो आजीविका के लिये सञ्चरित्व (स्त्री का सन्देश पुरुष के पास या पुरुष का सन्देश स्त्री के पास पहुँचाना) करता है उसे ‘सहादिशेष' की आपत्ति होती है। (वि०पि०२-५)।३. जो आजीविका के लिये (गृहस्थों से खुशामद के रूप में यह कहता है कि 'जो भिक्षु तुम्हारे (बनवाये) विहार में रहता है वह अर्हत् ही हो जाता) है।' और गृहस्थों द्वारा इसकी इस बात पर विश्वास कर लिये जाने पर उस (भिक्षु) को 'स्थूल अत्यय' की आपत्ति होती है। ४. जो भिक्षु आजीविका के लिये अच्छे-अच्छे स्वादिष्ठ रुचिकर भोजन अपने लिये गृहस्थों से कहकर बनवावे और खावे उसे 'पाचित्तिय' आपत्ति होती है। (वि०पि० ५,१४,३)। ५. जो भिक्षुणी आजीविका के लिये, रुग्ण न होने पर भी अपने लिये गृहस्थों से कह कर सुन्दर भोजन बनवाकर खाये उसे 'प्रतिदेशनीय आपत्ति होती है। (वि० पि०५-१)। जो आजीविका के लिये स्वस्थ होते हुए भी अपने लिए गृहस्थों से कहकर सूप (दाल) या ओदन (भात) बनवा कर खाये उसे 'दुष्कृत' (दुक्कट) आपत्ति होती है (वि० ५-१८१)। पालि में ये छह शिक्षापद प्राप्त हैं। इन छह शिक्षापदों के कहने का यही तात्पर्य है। उक्त पालिपाठ में आये 'कुहना' आदि विशिष्ट शब्दों के ज्ञान के लिये पालि में अन्यत्र वर्णित इन विशिष्ट शब्दों के व्याख्यान को ध्यान में रखना चाहिये। जैसे "वहाँ (उस प्रसङ्ग में) 'कुहना' से क्या तात्पर्य है? लाभ, सत्कार, भोक (यश) के प्रलोभन में पड़े, पापमय इच्छा वाले, यथेच्छाचारी (भिक्षु) की जो प्रत्यय (विहित आवश्यक सामग्री) की निषेधसम्बन्धी या दसरों (अर्हतों) के समान अपने को भी बताने के लिये (परोक्षकथन हेतु) अगसञ्चालन
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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