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१. सीलनिद्देस
३३ तत्रापि नेव भवङ्गसमये, न आवजनादीनं अतरसमये संवरो वा असंवरो वा अत्थि । जवनक्खणे पन सचे दुस्सील्यं वा मुट्ठसच्चं वा अणं वा अक्खन्ति वा कोसज्जं वा उप्पजति, असंवरो होति । एवं होन्तो पन सो 'चक्षुन्द्रिये असंवरो' ति वुच्चति।
___ कस्मा? यस्मा तस्मिं सति द्वारं पि अगुत्तं होति, भवङ्गं पि, आवजनादीनि पि वीथिचित्तानि। यथा किं? यथा नगरे चतूसु द्वारेसु असंवुतेसु किञ्चापि अन्तोघरद्वारकोट्टकगब्भादयो सुसंवुता होन्ति, तथा पि अन्तोनगरे सब्बं भण्डं अरक्खितं अगोपितमेव होति । नगरद्वारेन हि पविसित्वा चोरा यदिच्छन्ति तं करेय्यु, एवमेव जवने दुस्सील्यादीसु उप्पन्नेसु तस्मिं असंवरे सति द्वारं पि अगुत्तं होति, भवङ्गंपि, आवजनादीनि पि वीथिचित्तानि।
तस्मि पन सीलादीसु उप्पन्नेसु द्वारं पि गुत्तं होति, भवङ्ग पि आवजनादीनि पि वीथिचित्तानि। यथा किं? यथा नगरद्वारेसु सुसंवुतेसु किञ्चापि अन्तोघरादयो असंवुता होन्ति, तथा पि अन्तोनगरे सब्बं भण्डं सुरक्खितं सुगोपितमेव होति । नगरद्वारेसु हि पिहितेसु चोरानं पवेसो नत्थि, एवमेव जवने सीलादीसु उप्पन्नेसु द्वारं पि गुत्तं होति, भवङ्गं पि आवज्जनादीनि पि वीथिचित्तानि। तस्मा जवनक्खणे उप्पजमानो पि 'चक्खुन्द्रिये संवरो' ति वुतो।
सोतेन सदं सुत्वा ति आदीसु पि एसेव नयो । एवमिदं सोपतो रूपादीसु किलेसानुबन्धनिमित्तादिग्गाहपरिवजनलक्खणं इन्द्रियसंवरसीलं ति वेदितब्बं ।
वहाँ भी न भवङ्ग के समय, न आवर्जन आदि में से किसी एक के समय संवर या असंवर होता है। जवनक्षण में ही यदि दो शील्य, विस्मृति, अज्ञान, अक्षान्ति (अरुचि) या आलस्य (कौसीद्य) उत्पन्न होते हैं तो 'असंवर' होता है। ऐसा होने पर 'चक्षुरिन्द्रिय में असंवर' कहलाता है।
क्यों? इसलिये कि उस असंवर के होने पर द्वार भी अरक्षित होता है, भवङ्ग भी, आवर्जन आदि वीथिचित्त भी। कैसे? जैसे नगर के चारों (मुख्य) द्वारों के बन्द न रहने पर, फिर भले ही घरों के द्वार, प्रकोष्ठ, कमरे आदि पूरी तरह बन्द हों तो भी नगर में सभी वस्तुएँ अरक्षित या खुली हुई ही कहलाती हैं, क्योंकि चोर नगर के खुले द्वारों से प्रविष्ट होकर नगर के किसी भी घर में जाकर जो चाहे कर सकता है। इसी तरह, जवन में दो शील्य आदि के उत्पन्न होने पर, उसमें असंवर होने से चक्षुर भी अरक्षित होता है, भवाङ्ग भी, आवर्जन आदि वीथिचित्त भी।
हाँ, उस समय जवन में शील आदि के उत्पन्न होने पर, द्वार भी गुप्त हो जाता है, भवान. आवर्जन और वीथिचित्त भी। कैसे? जैसे नगर के चारो द्वारों के भलीभाँति रहने पर, फिर भले ही नगर के अन्तवर्ती घर सर्वथा खुले ही क्यों न पड़े रहें उन घरों का सभी सामान सुरक्षित व गुप्त ही रहता है। नगर द्वारों के बन्द रहने पर, चोरों का प्रवेश नहीं हो पाता; इसी तरह जवन में शीलादि के उत्पन्न होने पर द्वार भी गुप्त रहता है, भवाङ्ग आवर्जन आदि वीथिचित्त भी। यो, यद्यपि यह (संवर) जवन के क्षण में उत्पन्न होता है, तथापि 'चक्षुरिन्द्रियसंवर' ही कहलाता है।
सोतेन सदं सुत्वा- (श्रोत्र से शब्द सुनकर) इस पालि-पाठ का भी उपरिवर्णित 'चक्खुना रूपं दिस्वा' के व्याख्यान में वर्णित शैली से ही सङ्गमन कर लेना चाहिये। इस प्रकार, संक्षेप मेंरूपादि में क्लेशानुबन्धी निमित्त आदि के ग्रहण या वर्जन जिसका लक्षण है- ऐसे इन्द्रियसंवरशील को जानना चाहिये।।