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विसुद्धिमग्ग "नाभिजानामि इत्थी वा, पुरिसो वा इतो गतो।
अपि च अट्ठिसङ्घातो, गच्छतेस महापथे" ति॥ यत्वाधिकरणमेनं ति आदिम्हि यङ्कारणा यस्स चक्खुन्द्रियासंवरस्स हेतु एतं पुग्गलं सतिकवाटेन चक्खुन्द्रियं असंवुतं अपिहितचक्खुद्वारं हुत्वा विहरन्तं एते अभिज्झादयो धम्मा अन्वास्सवेय्यु, अनुबन्धेय्युं । तस्स संवराय पटिज्जती ति। तस्स चक्खुन्द्रियस्स सतिकवाटेन पिदहनत्थाय पटिपजति । एवं पटिपज्जन्तो येव च रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जती ति पि वुच्चति । तत्थ किञ्चापि चक्खुन्द्रिये संवरो वा असंवरो वा नत्थि। न हि चक्खुपसादं निस्साय सति वा मुट्ठसच्चं वा उप्पजति। अपि च यदा रूपारम्मणं चक्खुस्स आपाथं आगच्छति, तदा भवङ्गे द्विक्खत्तुं उप्पज्जित्वा निरुद्ध, किरियमनोधातु आवजनकिच्चं साधयमाना उप्पजित्वा निरुज्झति। ततो चक्खुविज्ञाणं दस्सनकिच्चं, ततो विपाकमनोधातु सम्पटिच्छनकिच्चं, ततो विपाकाहेतुकमनोविज्ञआणधातु सन्तीरणकिच्चं, ततो किरियाहेतुकमनोविज्ञाणधातु वोट्ठपनकिच्चं साधयमाना उप्पज्जित्वा निरुज्झति, तदनन्तरं जवनं जवति ।
उसके पीछे-पीछे आता हुआ उसका पति, स्थविर को देखकर, उनसे पूछने लगा-"क्या, भन्ते! आपने किसी स्त्री को इधर आगे जाते देखा है?"
स्थविर बोले- "मैं नहीं जानता कि इधर कोई स्त्री या पुरुष संज्ञक कुछ गया है। हाँ इतना जानता हूँ कि एक अस्थिकङ्काल अभी आगे-आगे गया है।"
यत्वाधिकरणमेनं- आदि पालिपाठ में जिस कारण या जिस चक्षुरिन्द्रिय के असंयमरूप हेतु से इस पुद्गल को स्मृतिरूपी कपाट से चक्षुरिन्द्रिय के बन्द किये विना 'खुले इन्द्रिय-द्वार वाला' होकर साधना करते हुए को लोभ आदि धर्म सता सकते हैं, उसके पीछे लग सकते हैं। .
तस्स संवराय पटिपज्जति- उस चक्षुरिन्द्रिय को स्मृतिरूपी कपाट से बन्द करने के लिये तत्पर होता है। एवं इस प्रकार तत्पर रहते हुए ही वह चक्षुरिन्द्रिय की रक्षा करता है, उसका संवर करता है-इसलिये भी ऐसा कहा जाता है।
वस्तुतः चक्षुरिन्द्रिय का संवर या असवर नहीं होता; क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय के आश्रय से न तो स्मृति उत्पन्न होती है, न विस्मृति (मुट्ठसच्च)। इसके विपरीत, जब रूपालम्बन चक्षु के सम्पर्क में आता है तब भवङ्गचित्त (स्वाभाविक या निरालम्बन परिशुद्ध या प्रभास्वरचित्त) के दो बार उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाने पर क्रियामनोधातु' आवर्जन (आलम्बनविषयक कल्पना) कृत्य का सम्पादन करती हुई उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाती है। तदनन्तर चक्षुर्विज्ञान दर्शनकृत्य करता हुआ, पुनः विपाकमनोधातु सम्प्रत्येषण (सपटिच्छन) का कार्य करती हुई, तदनन्तर विपाकाहेतुक मनोविज्ञानधातु सन्तीरण कृत्य करती हुई, ततश्च क्रियाहेतुक मनोविज्ञानधातु' व्यवस्थापन कृत्य सम्पन्न करती हुई उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाती है। तत्पश्चात् जवनचित्त जवन करता है।
१. उस उस कार्य को सिद्ध करने के लिये प्रवर्तनमात्र ‘क्रिया कहलाता है। स्वभाव से शून्य, निर्जीव-सा मन
ही 'मनोधातु है। २.चक्षु से किसी रूपालम्बन को देखकर जानना ही चक्षुर्विज्ञान है। ३. रूपाक्यालम्बन का सम्प्रत्येषण ही विपाकमनोधातु है। . स्वीकृत आलम्बन की यथातथ मीमांसा करना सन्तीरण कहलाता है, वही विपाकाहेतुक मनोविज्ञान धातु भी
कही जाती है। ५. उसी आलम्बन का सम्यक्तया विचार ही 'व्यवस्थापनचित्त' कहलाता है। ६. उन उन कृत्यों को पूर्ण करते हुए एक या अनेक बार, छोड़ने के समान आलम्बन मे पुन पुन उत्पन्न होने वाला चित्त 'जवनचित्त' कहलाता है।