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१.सीलनिहेस
द्वारारम्मणसङ्घट्टे पन चक्खुपसादवत्थुकेन चित्तेन पस्सति । ईदिसी पनेसा'धनुना विज्झती' ति आदिसु विय ससम्भारकथा नाम होति। तस्मा 'चक्खुविणेन रूपं दिस्वा' ति अयमेवेत्थ अत्थो" ति।
न निमित्तग्गाही ति। इत्थिपुरिसनिमित्तं वा सुभनिमित्तादिकं वा किलेसवत्थुभूत्तं निमित्तं न गण्हाति, दिट्ठमत्ते येव सण्ठाति।
नानुब्यञ्जनग्गाही ति। किलेसानं अनु अनु ब्यञ्जनतो पाकटभावकरणतो अनुब्यञ्जनं ति लद्धवोहारं हत्थपादसितहसितकथितआलोकितविलोकितादिभेदं आकारं न गण्हाति, यं तत्थ भूतं, तदेव गण्हाति, चेतियपब्बतवासी महातिस्सत्थेरो विय ।
थेरं किर चेतियपब्बता अनुराधपुरं पिण्डचारत्थाय आगच्छन्तं अञतरा कुलसुण्हा सामिकेन सद्धिं भण्डित्वा सुमण्डितपसाधिता देवका विय कालस्सेव अनुराधपुरतो निक्खमित्वा आतिधरं गच्छन्तो अन्तरामग्गे दिस्वा विपल्लत्थचित्ता महाहसितं हसि। थेरो 'किमेतं' ति ओलोकेन्तो तस्सा दन्तद्रिके असुभसञ्ज पटिलभित्वा अरहत्तं पापुणि । तेन वुत्तं
"तस्सा दन्तठ्ठिकं दिस्वा पुब्बसनं अनुस्सरि।
तत्थेव सो ठितो थेरो अरहत्तं अपापुणी" ति॥ सामिको पि खो पनस्सा अनुमग्गं गच्छन्तो थेरं दिस्वा "किञ्चि, भन्ते, इत्थिं पस्सथा?" ति पुच्छि। तं थेरो आहरूप को नहीं देख पाती; अकेला चित्त भी रूप का साक्षात्कार नहीं कर पाता; क्योंकि वहाँ तब चक्षुरिन्द्रिय नहीं है। यहाँ वास्तविकता यह है कि पुरुष का चक्षु आदि छह द्वार एवं रूप आदि छह आलम्बनों का संसर्ग होने पर चक्षु प्रसादमय चित्त से ही कुछ देखता है। यह 'चक्षु से रूप देखकर' कहना तो ऐसे ही है जैसे हम लोक में बोलते रहते हैं-"धनुष से मारता है"। जबकि वहाँ उस मारणक्रिया का साधन तीर है, धनुष नहीं। अतः यहाँ 'चक्खुना रूपं दिस्वा' का यही अर्थ समझना चाहिये कि चक्षुर्विज्ञान से रूप को देखकर।"
न निमित्तग्गाही- वह 'स्त्री' या 'पुरुष' निमित्त को या शुभादि निमित्तों को (जैसे 'यह स्त्री है', 'यह पुरुष है'. 'यह सुन्दर है' आदि रूप में दृश्य विषयों को) केवल उन्हें (वास्तविक स्वरूप में) देखकर ही रह जाता है, उनकी तरफ आकृष्ट नहीं होता।
नानुष्यअनग्गाही- अनुव्यअनग्राही नहीं होता । क्लेशों का अनुगामी होने से या उन्हें प्रकट करने से 'अनुव्यअन' संज्ञा से व्यवहृत हस्तपादादि का सञ्चालन, हँसना-मुस्कराना, बोलना, अवलोकन (आगे देखना) विलोकन (पीछे देखना) आदि आकारों को ग्रहण नहीं करता । जो यथार्थ है उसी का ग्रहण करता है; जैसे चैत्यपर्वतवासी महातिष्य स्थविर ने किया था।
इस स्थविर की कथा यह है- स्थविर के चैत्य पर्वत से उतरकर, भिक्षाहेतु अनुराधपुर जाते समय, कोई कुलवधू, जो अपने पति से गृहकलह कर देवकन्या की तरह सज-धज कर बहुत प्रातः ही अनुराधपुर से निकल अपने मातृगृह जा रही थी, मार्ग के बीच उस स्थविर को देख, दूषितचित्त (काममुग्ध) हो, जोर से हँसी । स्थविर ने 'यह क्या है?'-इस प्रकार देखते हुए उसके दाँतों की अस्थियों में अशुभसंज्ञा को ग्रहण कर अर्हत्त्व पा लिया । इसीलिये कहा गया है
"उसके दाँतों की अस्थियाँ देखकर स्वयं द्वारा अधिष्ठान की गयी पहले वाली (अशुभ) संज्ञा का अनुसरण कर उस स्थविर ने वहाँ खड़े-खडे ही अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया।"