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________________ ३० विसुद्धिमग्ग न पत्तिं, न इत्थिं, न पुरिसं ओलोकेन्तो, न उद्धं उल्लोकेन्तो, न अधो ओलोकेन्तो, न । दिसाविदिसं पेक्खमानो गच्छति, अयं वुच्चति आरक्खगोचरो। ___कतमो उपनिबन्धगोचरो? चत्तारो सत्तिपठाना यत्थ चित्तं उपनिबन्धति । वुत्तं हेतं भगवता-"को च, भिक्खवे, भिक्खुनो गोचरो सको पेत्तिको विसयो? यदिदं चत्तारो सतिपवाना" (सं० ४-१२७) ति, अयं वुच्चति उपनिबन्धगोचरो। इति इमिना च आचारेन इमिना च गोचरेन उपेतो पे० समन्नागतो । तेन पि वुच्चति-आचारगोचरसम्पन्नो ति। __ अणुमत्तेसु वजेसु भयदस्सावी ति। अणुप्पमाणेसु असञ्चिच्च आपनसेखियअकुसलचित्तुप्पादादिभेदेसु वज्जेसु भयदस्सनसीलो। समादाय सिक्खति सिक्खापदेसू ति। यं किञ्चि सिक्खापदेसु सिक्खितब्बं, तं सब्बं सम्मा आदाय सिक्खति। एत्थ च "पातिमोक्खसंवरसंवुतो" ति एतावता च पुग्गलाधिट्ठानाय देसनाय पातिमोक्खसंवरसीलंदस्सितं। "आचारगोचरसम्पन्नो" ति आदि पन सब्बं यथापटिपन्नस्स तं सीलं सम्पज्जति, तं पटिपत्तिं दस्सेतुं वुत्तं ति वेदितब्बं ॥ (ख) इन्द्रियसंवरसीलं ३०. यं पनेतं तदनन्तरं "सो चक्खुना रूपं दिस्वा" ति आदिना नयेन दस्सितं इन्द्रियसंवरसीलं, तत्थ- सो ति। सो पातिमोक्खसंवरसीले ठितो भिक्खु। चक्खुना रूपं दिस्वा ति। कारणवसेन चक्खू ति लद्धवोहारेन रूपदस्सनसमत्थेन चक्खुविज्ञाणेन रूपं दिस्वा।पोराणा पनाहु-"चक्खु रूपं न पस्सति, अचित्तकत्ता; चित्तं न पस्सति, अचक्खुकत्ता; होकर चलता है, मार्ग में न हाथी, न घोड़े, न रथ, न पैदल चलने वालों को, न स्त्री न पुरुष को न ऊपर न नीचे, न इधर, न उधर (व्यर्थ) देखते हुए चलता है-यह 'आरक्षगोचर' कहलाता है। 'उपनिबन्धगोचर' क्या होता है? वे चार स्मृतिप्रस्थान, जहाँ चित्त उपनिबद्ध होता है। भगवान् ने कहा भी है- "भिक्षुओ! भिक्षु का कौन सा गोचर उसका पैतृक उत्तराधिकार होता है? यही जो ये चार स्मृति-प्रस्थान हैं।"-यह उपनिबन्धगोचर कहलाता है। यों, इस आचार व इस गोचर से युक्त...पूर्ववत्...समन्वागत ही 'आचारगोचरसम्पन्न' कहलाता है। अणुमात्र (अल्पतम) दोषों में भी भय देखने वाला-प्रातिमोक्ष के छोटे छोटे नियों का अशान में हुए उल्लखन एवं अल्पमात्र अकुशलचित्तोत्पाद जैसे वर्जित दोषों के करने में भी भय मानने वाला। शिक्षापदों का ग्रहण कर उनका अभ्यास करता है-शिक्षापदों में जो कुछ भी सीखने योग्य है उस सबको यथार्थतः ग्रहण कर अभ्यास करता है। यहाँ यह 'प्रातिमोक्षसंवर संयुक्त तक व्यक्ति (पुद्गल) पर आधृत देशना द्वारा प्रातिमोक्ष संवरशील कहा गया। आचारगोचरसम्पन्न' आदि (शब्दों से) जो सब कहा गया है वह, यथाप्रतिपन्न का जो शील पूर्ण होता है, उसके मार्ग (प्रतिपत्ति) का प्रदर्शन करने के लिये कहा गया है- ऐसा समझना चाहिये। (ख) इन्द्रियसंवरशील ३०. उसके बाद यह जो ऊपर "चक्षु से रूप देखकर" "आदि प्रकार से पालि-पाठ द्वारा इन्द्रियसंवर कहा गया है उसका व्याख्यान इस तरह है-सो- वह प्रातिमोक्षसंवरशील साधनारत भिक्षु । चक्खुना रूपं दिस्वा- यह एक बोलने का ढंग है, अन्यथा वस्तुतः रूपदर्शन में समर्थ तो चक्षु का विज्ञान है। इसीलिये प्राचीन (पौराण) विद्वान् कहते हैं-"चित्त से सम्बद्ध न होने पर चक्षुरिन्द्रिय
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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