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१. सीलनिद्देस खादिस्साम? किं भुञ्जिस्साम? किं वा मे दस्सथा' ति विप्पलपति-अयं वुच्चति वाचसिको अनाचारो" (खु० ४:१-१९१)। पटिएक्खवसेन पनस्स आचारो वेदितब्बो।
__अपि च-भिक्खु सगारवो सप्पतिस्सो हिरोत्तप्पसम्पन्नो सुनिवत्थो सुपारुतो, पासादिकेन अभिकन्तेन पटिफन्तेन आलोकितेन विलोकितेन समिञ्जितेन पसारितेन
ओक्खित्तचक्खु इरियापथसम्पन्नो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो,भोजने मत्तञ्जू, जागरियमनुयुत्तो, सतिसम्पजञ्जन समन्नागतो, अप्पिच्छो, सन्तुट्ठो, आरद्धविरियो, आभिसमाचारिकेसु सकच्चकारो, गरुचित्तीकारबहुलो विहरति-अयं वुच्चति आचारो। एवं ताव आचारो वेदितब्बो।
गोचरो पन तिविधो-उपनिस्सयगोचरो, आरक्खगोचरो, उपनिबन्धगोचरो ति। तत्थ कतमो उपनिस्सयगोचरो? दसकथावत्थुगुणसमन्नागतो कल्याणमित्तो यं निस्साय अस्सुतं सुणाति, सुतं परियोदपेति, कझं वितरति, दिढेि उजुं करोति, चित्तं पसादेति। यस्स वा पन अनुसिक्खमानो सद्धाय वडति, सीलेन, सुतेन, चागेन, पाय वडति-अयं वुच्चति उपनिस्सयगोचरो।
कतमो आरक्खगोचरो? इध भिक्खु अन्तरधरं पविट्ठो वीथिं पटिपन्नो ओक्खित्तचक्खु युगमत्तदस्सावी सुसंवुतो गच्छति, न हत्थिं ओलोकेन्तो, न अस्सं, न रथं,
करने योग्य क्या है? हमें क्या दोगी?"-यो असम्बद्ध वचन बोलता है-यह भी 'वाचसिक अनाचार' कहलाता है।
इसके प्रतिकूल आचरण वाचसिक आचार' कहलाता है।
और फिर कोई भिक्षु धर्म एव सङ्घ के प्रति सम्मान, सङ्कोच एवं लज्जा के साथ भलीभाँति अन्तर्वासक (भीतरी वस्त्र) एवं चीवर धारण किये हुए, प्रसन्नवदन हो, ठीक तरह से आलोकनविलोकन कर आगे पीछे चलते समय अपने अङ्गों को ठीक तरह से समेटते पसारते हुए, नीची नजर कर अपनी शारीरिक चेष्टा करता है, इन्द्रियों पर संयम रखता है, भोजन का उपयोग उचित मात्रा में करता है, जागरणशील रहता है, स्मृति एवं सम्प्रजन्य से युक्त होता है, अल्पेच्छ है तथा यथालाभसन्तुष्ट रहता है, उद्योगरत एवं सदाचार-कर्मो को आदरपूर्वक करने वाला तथा गुरु-वृद्धजनों को सम्मानित दृष्टि से देखता हुआ साधना में तत्पर रहता है-इसे 'आचार' कहते हैं। यों 'आचार' के विषय में समझना चाहिये। .
फिर 'गोचर' के भी तीन प्रकार है; जैसे-१. उपनिश्रयगोचर, २. आरक्षगोचर एव ३. उपनिबन्धगोचर । इनमे उपनिश्रयगोचर क्या है? दश कथावस्तुओं के गुणों से समन्वित कल्याणमित्र, जिसके सहारे न सुने हुए को सुनता है, सुने हुए का संशोधन करता है, शङ्का-सन्देह मिटाता है, यथार्थदर्शी बनता है, इस तरह चित्त में प्रसन्नता की वृद्धि करता है। अथवा-जिसके द्वारा शिक्षित हो वह श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याग और प्रज्ञा में उन्नति करता है-यह 'उपनिय श्रगोचर' कहलाता है। .
'आरक्षगोचर' क्या है? यहाँ कोई भिक्षु गृहस्थ के घर में प्रवेश करते या मार्ग (विधि) में चलते हुए नीची दृष्टि रखकर चार हाथ की दूरी तक ही देखता हुआ (-युगमार्गदर्शी) एवं सर्वथा संयत १ दश कथावस्तु-१. अल्पेच्छता, २ सन्तुष्टि. ३ प्रविवेक, ४. असंसृष्टि. ५. वीर्यारम्भ, ६. शील, ७. समाधि,
८ प्रज्ञा, ९ विमुक्ति एवं १० विमुक्तिज्ञानदर्शन (म०नि० १-३, ४)।