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________________ विसुद्धिमग्ण इधेकच्चो सङ्घगतो पि अचित्तीकारकतो थेरे भिक्खू घट्टयन्तो पि तिट्ठति, घट्टयन्तो पि निसीदति, पुरतो पि तिट्ठति, पुरतो पि निसीदति, उच्चे पि आसने निसीदति, ससीसं पि पारुपित्वा निसीदति, ठितको पि भणति, बाहाविक्खेपको पि भणति, थेरानं भिक्खूनं अनुपाहनानं चकमन्तानं सउपाहनो चङ्कमति, नीचे चङ्कमे चङ्कमन्तानं उच्चे चङ्कमे चङ्कमति, छमायं चकमन्तानं चङ्कमे चङ्कमति, थेरे भिक्खू अनुपखज्जा पि तिट्ठति, अनुपखज्जा पि निसीदति, नवे पि भिक्खू आसनेन पटिबाहति, जन्ताधरे पि थेरे भिक्खू अनापुच्छा कटु पक्खिपति, द्वारं पिदहति, उदकतित्थे पि थेरे भिक्खू घट्टयन्तो पि ओतरति, पुरतो पि ओतरति, घट्टयन्तो पि न्हायति, पुरतो पि न्हायति, घट्टयन्तो पि उत्तरति, पुरतो पि उत्तरति; अन्तरघरं पविसन्तो पि थेरे भिक्खू घट्टयन्तो पि गच्छति, पुरतो पि गच्छति, वोक्कम्म च थेरानं भिक्खूनं पुरतो पुरतो गच्छति, यानि पि तानि होन्ति कुलानं ओवरकानि गूळ्हानि च पटिच्छन्नानि च यत्थ कुलित्थियो कुलकुमारियो निसीदन्ति, तत्थ पि सहसा पविसति, कुमारकस्स पि सीसं परामसति-अयं वुच्चति कायिको अनाचारो। तत्थ कतमो वाचसिको अनाचारो? "इधेकच्चो सङ्घगतो पि अचित्तीकारकतो थेरे भिक्खू अनापुच्छा धम्म भणति, पहं विस्सजेति, पातिमोक्खं उद्दिसति, ठितको पि भणति, बाहाविक्खेपको पि भणति, अन्तरघरं पविट्ठो पि इत्थिं वा कुमारि वा एवमाह-'इत्थन्नामे, इत्थंगोत्ते किं अत्थि? यागु अत्थि? भत्तं अत्थि? खादनीयं अत्थि? किं पिविस्साम? किं कायिक वाचिक भेद से अनाचार दो प्रकार का होता है। वहाँ 'कायिक अनाचार' क्या है? यहाँ कोई सङ्घ में सम्मिलित होता हुआ अशिष्टता के साथ स्थविर भिक्षुओं को ढकेलते हुए खड़ा होता है, ढकेलते हुए बैठता है; उनके सामने (पीठ देकर) खड़ा हो जाता है, बैठ जाता है, उनसे ऊँचे आसन पर बैठता है, सिर ढक कर बैठता है, उनके सामने खड़ा होकर बोलता है, असम्मान की दृष्टि से हाथ फैक-फैक कर बोलता है, स्थविर भिक्ष जब विना जता खडाऊँ पहने चक्रमण कर रहे हों तो उनके सामने जता आदि पहनकर चंक्रमण करता हो; या वे जब किसी नीचे स्थान पर चंक्रमण कर रहे हों तब वह उनके सामने उनकी अपेक्षा उनसे ऊँचे स्थल पर चंक्रमण करता है, स्थविर भिक्षुओं को धक्का देता हुआ खड़ा होता है या बैठता है; नये भिक्षुओं को आसन ग्रहण करने से रोकता है; स्थविर भिक्षुओं को विना पूछे, नानगृह में काष्ठ (का आसन) रख देता है या उस स्रानगृह के द्वार बन्द कर देता है; घाट पर स्नान करते समय स्थविर भिक्षुओं को एक तरफ ढकेलते हुए जल में उतरता है, या उनके सामने से भी उतरता है; उन्हें ढकेलते हुए नहाता है, उनके सामने भी नहाता है; किन्हीं गृहस्थो के घरों में प्रवेश करते समय स्थविर भिक्षुओं को ढकेलते हुए भीतर जाता है; और गृहस्थों के घरों में जहाँ अवरोध (पर्दे) लगे हुए हो या निजी कक्ष हो, जिनमें कि परिवार की स्त्रियाँ एवं कुमारियाँ रहती हों, वहाँ भी सहसा, अनुमति के विना प्रवेश करता है, वहाँ सोये या बैठे बच्चों के सिर पर आशीर्वाद के बहाने से हाथ फेरता है, उन्हें थपथपाता है- यह ‘कायिक अनाचार' है। 'वाचिक अनाचार' क्या है? "यहाँ कोई सङ्घ में जाकर अशिष्टता के साथ, स्थविर भिक्षुओ की आज्ञा के विना ही, धर्म के विषय में प्रश्न करता है, उत्तर देता है, प्रातिमोक्ष का पारायण करता है, खड़ा होकर बोलता है, बाँह पसार-पसार कर बोलता है, गृहस्थो के घर में प्रवेश कर वहाँ किसी स्त्री या कुमारी से इस प्रकार कहता है- 'अरी ओ अमुक नाम या अमुक गोत्र वाली! (आज हमारे लिये) क्या भोजन बनाया है? मेरे लिये दाल है? भात है? खाने योग्य या पीने योग्य कुछ है? भोजन
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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