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१. सीलनिद्देस
२७ - "तत्थ कतमो अगोचरो? इधेकच्चो वेसियागोचरो वा होति, विधवा-थुल्लकुमारिकापण्डक-भिक्खुनी-पानागारगोचरो वा होति, संसट्ठो विहरति राजूहि राजमहामत्तेहि तित्थियेहि, तित्थियसावकेहि अननुलोमिकेन संसग्गेन, यानि वा पन तानि कुलानि अस्सद्धानि अप्पसन्नानि अक्कोसकपरिभासकानि अनत्थकामानि अहितकामानि अफासुककामानि अयोगक्खेमकामानि भिक्खून भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं, तथारूपानि कुलानि सेवति भजति पयिरुपासति, अयं वुच्चति अगोचरो।
"तत्थ कतमो गोचरो? इधेकच्चो न वेसियागोचरो वा होति ...पे०... न पानागारगोचरो वा होति, असंसट्ठो विहरति राजूहि...पे०... तित्थियसावकेहि अननुलोमिकेन संसग्गेन, यानि वा पन तानि कुलानि सद्धानि पसन्नानि ओपानभुतानि कासावपज्जोतानि इसिवातपटिवातानि अत्थकामानि...पे०... योगक्खेमकामानि भिक्खूनं...पे०... उपासिकानं, तथारूपानि कुलानि सेवति भजति पयिरुपासति, अयं वुच्चति गोचरो। इति इमिना च आचारेन इमना च गोचरेन उपेतो होति समुपेतो उपगतो समुपगतो उपपन्नो सम्पन्नो समन्नागतो। तेन वुच्चति-"आचार-गोचरसम्पन्नो" (अभि० २-२९६) ति।
अपि चेत्थ इमिना पि नयेन आचारगोचरा वेदितब्बा
दुविधो हि अनाचारो, कायिको वाचसिको च। तत्थ कतमो कायिको अनाचारो? दिखाकर या सेवा-टहल कर या भगवान् बुद्ध द्वारा निन्दित अतएव निषिद्ध आजीविका (जीवन-वृत्ति) से अपना जीवननिर्वाह करता है-यही 'अनाचार' कहा जाता है।
और वहाँ (पालि-पाठ में) 'आचार से क्या तात्पर्य है? "शास्त्रोक्त काय तथा वाणी के र माँ का अनुल्लङ्घन या काय-वाक्कर्मों का अनुल्लङ्घन ही यहाँ आचार' पद से अभिप्रेत है। यहाँ कोई न तो बाँस का भार उपहार में देकर, न पत्र या पुष्प-फल, सानोपयोगी द्रव्य या दतुअन आदि उपहार में देकर, न चाटुकारिता (मुँहदेखी बात) करके, न झूठ-सच बोलकर, न उसके शत्रुओं से कृत्रिम विरोध दिखाकर, न सेवा-टहल कर, न बुद्ध द्वारा निन्दित अतएव निषिद्ध कर्मों से आजीविका चलाता हुआ जीवननिर्वाह करता है- यही (उसका) आचार' कहलाता है।
गोचर- शास्त्र में गोचर का भी वर्णन है, अगोचर का भी। "वहाँ 'अगोचर' शब्द का क्या अभिप्राय है? यहाँ कोई वेश्यागामी हो या विधवा, अविवाहित स्वस्थ वय प्राप्त लड़की (स्थूलकुमारी), नपुंसक या भिक्षुणी से समागम (मैथुन) करने वाला हो. मद्यशाला जाता हो, या राजा व राजा के महामात्य, अन्यतीर्थिकों या उनके शिष्यो से अननुलोम (प्रतिकूल) संसर्ग द्वारा या वैसे वैसे श्रद्धाविरहित परिवारो (कुलो) से वैर रखने वालो से, भिक्षु-भिक्षुणी-उपासक-उपासिकाओं को कोसने, कटुवचन बोलने वालो से या इनका अहित अनिष्ट या अयोगक्षेम चाहने वालों से सम्पर्क रखता है, मेल-जोल बढाता है, उनके पास बार बार जाता है-ऐसा व्यक्ति 'अगोचर' कहलाता है।
"और वहाँ ‘गोचर' शब्द से क्या तात्पर्य है? यहाँ जो न वेश्यागामी हो..पूर्ववत् न मदिरालय जाय, न राजाओ से नजो अन्यतीर्थिकों के शिष्यों से मेल-जोल बढ़ाता हो, न उनके पास बार बार जाता हो; और जो भिक्षुओं के प्रति प्रेमभाव श्रद्धा व धर्म भाव रखने वाले ऐसे हितैषी योगक्षेमकारक परिवारो में ही आना जाना हो जहाँ काषाय-वस्त्र (चीवर) धारी, ऋषिशो के आचारमय वातावरण मे रहने वाले भिक्षुओ का ही प्रायः आता-जाता हो, वह 'गोचर' कहलाता है। यों, जो ऐसे आचार, ऐसे गोचर से युक्त, सम्पन्न एव समन्वागत हो वही 'आचारगोचरसम्पन्न' कहलाता है।"
और यहाँ इस प्रकरण में इन 'आचार' 'गोचर' शब्दों का यह अर्थ भी समझा जा सकता है