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विसुद्धिमग्ग इमस्मि सासने। भिक्खू ति। संसारे भयं इक्खणताय वा भिन्नपटधरादिताय वा एवं लद्धवोहारो सद्धापब्बजितो कुलपुत्तो। पातिमोक्खसंवरसंवुतो ति। एत्थ पातिमोक्त्रं ति सिक्खापदसीलं। तं हि यो नं पाति रक्खति, तं मोक्खेति, मोचयति आपायिकादीहि दुक्खेहि, तस्मा पातिमोक्खं ति वुच्चति।संवरणं संवरो। कायिकवाचिकस्स अवीतिकमस्सेतं नामं । पातिमोक्खमेव संवरो पातिमोक्खसंवरो। तेन पातिमोक्खसंवरेन संवुतो पातिमोक्खसंवरसंवुतो-उपगतो, समन्त्रागतो ति अत्थो। विहरती ति। इरियति । आचारगोचरसम्पन्नो ति आदीनं अत्थो पालियं आगतनयेनेव वेदितव्यो । वुत्तं हेतं
"आचारगोचरसम्पन्नो ति। अत्थि आचारो, अत्थि अनाचारो। . - "तत्थ कतमो अनाचारो? कायिको वीतिकमो, वाचसिको वीतिकमो, कायिकवाचसिको वीतिकमो,अयं वुच्चति अनाचारो। सब्बं पि दुस्सील्यं अनाचारो। इधेकच्चो वेळुदानेन वा पत्तदानेन वा पुष्फफलसिनानदन्तकट्ठदानेन वा चाटुकम्यताय वा मुग्गसूप्यताय वा पारिभट्यताय वा जङ्घपेसनिकेन वा अञ्जतरञतरेन वा बुद्धपटिकुठून मिच्छाआजीवेन जीविकं कप्पेति, अयं वुच्चति अनाचारो।
___ "तत्थ कतमो आचारो? कायिको अवीतिकमो, वाचसिको अवीतिकमो, कायिकवाचसिको अवीतिकमो, अयं वुच्चति आचारो। सब्बो पि सीलसंवरो आचारो। इधेकच्चो न वेळुदानेन वा, न पत्त.... न पुप्फ.... न फल.... न सिनान.... न दन्तकट्ठदानेन वा न चाटुकम्यताय वा न मुग्गसूप्यताय वा न पारिभट्यताय वा न जङ्घपेसनिकेन वा न अञतरञतरेन वा बुद्धपटिकुठून मिच्छाआजीवेन जीविकं कप्पेति, अयं वुच्चति आचारो।
"गोचरो ति। अत्थि गोचरो, अत्थि अगोचरो।
इध- इस बुद्ध-शासन में। मिक्खु-कोई श्रद्धावश प्रव्रजित हुआ कुलपुत्र संसार में भय देखने के कारण या फटे-पुराने वस्त्र (चीवर) पहनने के कारण लोकव्यवहार में "भिक्षु' इस नाम से पुकारा जाता है। पातिमोक्खसंवरसंवुतो-यहाँ ‘प्रातिमोक्ष' का अर्थ है-शिक्षापदों में वर्णित आचार का पालन । जो उसका पालन करता है, रक्षण करता है, उसे वह भव-बन्धन से मुक्त कराता है, अपाय, दुर्गति आदि दुःखों से छुटकारा दिलाता है, अतः वह 'प्रातिमोक्ष' कहलाता है। संवर' कहते हैं संयम को। यहाँ इस शब्द का 'काय-वाग्गत संयम' से अभिप्राय है। इस प्रातिमोक्ष का संवर ही 'प्रातिमोक्षसंयम' है। यों उस प्रातिमोक्षसंवर से संवृत, उपगत, समन्वागत (युक्त) या प्राप्त व्यक्ति ही 'प्रातिमोक्षसंवरसंवृत' हुआ। विहरति-ईरण (भिक्षु-व्यवहार) करता है।
आचारगोचरसम्पन्नो आदि (अवशिष्ट) शब्दों का अर्थ पालि (बुद्धवचन) में अन्यत्र (अभि० २-२९६) जैसा मिलता है, वैसा ही यहाँ भी समझना चाहिये। वहाँ यह कहा गया है
आचार और गोचर से सम्पन्न- 'आचार' (का) भी (विद्वानों ने स्पष्टीकरण किया) है, अनाचार (का) भी।
- आचार-वहाँ उस प्रसङ्ग में 'अनाचार' क्या है? कायसम्बन्धी आचार (शील) का, वाकसम्बन्धी आचार का तथा काय-वाक्सम्बन्धी आचार का उल्लन यहाँ 'अनाचार' कहलाता है। संक्षेप में यों कहिये कि सभी दुःशील (दुराचारमय) व्यवहार 'अनाचार' है। यहाँ कोई पुरुष बांस का भार उपहार में देकर या पत्र, पुष्प या फल, सानोपयोगी द्रव्य (तैल, उबटन, वस्त्र आदि) या दतउन उपहार में देकर या चाटुकारिता (खुशामद) कर, या झूठ सच बोलकर या उसके शत्रुओं से कृत्रिम विरोध