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१. सीलनिद्देस
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आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी, समादाय सिक्खति सिक्खापदेसू" (दी० नि० १-५५ ) ति एवं वृत्तं सीलं, इदं पातिमोक्खसंवरसीलं नाम । यं पन " सो चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही, यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्म अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति । सोतेन सद्दं सुत्वा ....पे..... घानेन गन्धं घायित्वा... पे..... जिव्हाय. रसं सायित्वा ....पे..... कायेन फोटुब्बं फुसित्वा ....पे..... मनसा धम्मं विज्ञाय न निमित्तग्गाही .. ....पे..... मनिन्द्रिये संवरं आपज्जती" (म० नि० १-३३०) ति वुत्तं, इदं इन्द्रियसंवरशीलं । या पन आजीवहेतुपञ्ञत्तानं छन्नं सिक्खापदानं वीतिक्कमस्स, "कुहना लपना नेमित्तिकता निप्पेसिकता लाभेन लाभं निजिगीसनता " ति एवमादीनं च पापधम्मानं वसेन पवत्ता मिच्छाजीवा विरति इदं आजीवपारिसुद्धिसीवं । “पटिसङ्घा योनिसो चीवरं पटिसेवति, यावदेव सीतस्स पटिघाताया" (म० नि० १-१४) ति आदिना नयेन वुत्तो पटिसङ्खानपरिसुद्धो चतुपच्चयपरिभोगो पच्चयसन्निस्सितसीलं नाम ।
(क) पातिमोक्खसंवरसीलं
२९. तत्रायं आदितो पट्ठाय अनुपुब्बपदवण्णनाय सद्धिं विनिच्छयकथा - इधाति ।
माध्यम से - "यहाँ भिक्षु प्रातिमोक्षसंवर से संवृत एवं आचार (मन इन्द्रिय द्वारा शुभ आचरण) एवं गोचर (कर्मेन्द्रियों द्वारा कृत शुभ कर्म) से सम्पन्न हो साधना में लगा रहता है, छोटे से छोटे दोषों से भी भय मानना उसका स्वभाव बन जाता है, वह भलीभाँति शिक्षापदों का ग्रहण कर उनका अभ्यास करता है" - कहा गया शील प्रातिमोक्षसंवर शील कहलाता है।
(२) "वह चक्षु इन्द्रिय से रूप (विषय) को देखकर न उसके लक्षणों (निमित्तों) का ग्रहण करता है, न चिह्नों (अनुव्यञ्जनों) का जिसके कारण, यदि वह अपनी चक्षुरिन्द्रिय को असंयत छोड़ दे तो लोभ, दौर्मनस्य आदि पापमय अकुशल धर्म उत्पन्न होने लगेंगे, अतः उनके संवरहेतु साधक प्रयत्नवान् रहता है, चक्षुरिन्द्रिय की लोभादि से रक्षा करता है, उसमें संवर करता है। श्रोत्र से शब्द सुनकर ....घ्राण से गन्ध सुँघकर ... जिह्वा से रस चखकर.....काय से स्प्रष्टव्य (स्पर्शयोग्य) को स्पर्शकर मन से धर्म को जानकर मन इन्द्रिय से संवर करता है" इस सन्दर्भ में कथित शील इन्द्रियसंवरशील कहलाता है।
(३) और जो आजीविका ( रोजी-रोजगार) के सन्दर्भ में प्रज्ञप्त छह शिक्षापदों के उल्लङ्घन, व्यङ्ग्य मारना (कूटचर्या कुहना ), स्व या पर की मिथ्या प्रशंसा (लपना - वाचालता), करना, निमित्तकथन, (शकुन-अपशकुन आदि बताना = नैमित्तिकता), दूसरों को नीचा दिखाना (निष्पेषिकता), एक लाभ से दूसरे लाभ का अन्वेषण (निजिगिंसनता) आदि प्रकार पाप (उत्पन्न करने वाले) धर्मों के सहारे से होने वाली आजीविका (=कमाई ) से विरत रहना - यह आजीवपरिशुद्धि शील है ।
(४) "प्रज्ञा से सम्यक्तया सोच विचार कर चीवर का उतना ही उपयोग करता है, जिससे शीत या ताप से रक्षा (बचाव) हो सके" इस बुद्ध-वचन से कहा गया; चिन्तन से परिशुद्ध चार प्रत्ययों (चीवर, पिण्डपात, शयनासन, ग्लानप्रत्यय भैषज्य ) का उपयोग प्रत्ययसन्निश्रित शील कहलाता है। (क) प्रातिमोक्षसंवरशील
२९. अब उपरिवर्णित 'दीघनिकाय' के 'इध भिक्खु' इस ग्रन्थांश (पृष्ठ २५) के पदों की आनुपूर्वी (क्रमिक) व्याख्या (वर्णन) की जा रही है