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________________ २४ . विसुद्धिमग्ग अतुट्ठो सीलमत्तेन निब्बिदं योनुयुञ्जति । होति निब्बेधभागियं सीलमेतस्स भिक्खुनो ॥ ति॥६॥ एवं हानभागियादिवसेन चतुब्बिधं । दुतियचतुक्के, भिक्खू आरब्ध पञ्जत्तसिक्खापदानि, यानि च नेसं भिक्खुनीनं पअत्तितो रक्खितब्बानि, इदं भिक्खुसीलं। भिक्खुनियो आरब्भ पञत्तसिक्खापदानि, यानि च तासं भिक्खूनं पञत्तितो रक्खितब्बानि, इदं भिक्खुनीसीली सामणेर-सामणेरीनं दससीलानि, (इदं) अनुसम्पन्नसीलं। उपासक-उपासिकानं निच्चसीलवसेन पञ्चसिक्खापदानि, सति वा उस्साहे दस, उपोसथङ्गवसेन अठा ति इदं गहट्ठसीलं ति। एवं भिक्खुसीलादिवसेन चतुब्बिधं। ततियचतुक्के, उत्तरकुरुकानं मनुस्सानं अवीतिकमो पकतिसीलं। कुलदेसपासण्डा अत्तनो अत्तनो मरियादाचारित्तं आचारसीलं। "धम्मता एसा, आनन्द, यदा बोधिसत्ते मातुकुच्छिं ओकन्तो होति, न बोधिसत्तमातु पुरिसेसु मानसं उप्पजि कामगुणूपसंहितं" (म०नि० ३-१८५) ति एवं वुत्तं बोधिसत्तमातुसीलं धम्मतासीलं। महाकस्सपादीनं पन सुद्धसत्तानं, बोधिसत्तस्स च तासु तासु जातीसु सीलं पुब्बहेतुकसीलं ति। एवं पकतिसीलादिवसेन चतुब्बिध। चतुत्थचतुक्के, यं भगवता-"इध भिक्खु पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति (४) और जो शीलमात्र से असन्तुष्ट होकर निर्वेद (विपश्यना या वैराग्य) को अपना लक्ष्य बनाता है ऐसे भिक्षु का शील निर्वेदभागीय होता है।। ६ ।। ऐसे हानभागीय-आदि भेद से भी शील चतुर्विध होता है। द्वितीय शीलचतुष्कविभाग में- भिक्षुओं के लिये प्रज्ञप्त शिक्षापदों को, जिन्हें भिक्षुणियों के लिये प्रज्ञप्त शिक्षापदों से असम्बद्ध रखना चाहिये, भिक्षुशील कहते हैं। इसी प्रकार भिक्षुणियों के लिये प्रज्ञप्त शिक्षापदों को, जिन्हें भिक्षुशिक्षापदों से असम्बद्ध रखना चाहिये, भिक्षुणीशील कहते हैं। श्रामणेर-श्रामणेरियों के लिये प्रज्ञाप्त जो दश शील हैं वे अनुपसम्पन्नशील कहलाते हैं। उपासकउपासिकाओं के लिये नित्यशील के रूप में प्राप्त पाँच शिक्षाप्रद अथवा उत्साहसम्पन्नता में दस, व उपोसथ-अङ्ग के रूप में प्रज्ञप्त आठ शिक्षापद-ये गृहस्थशील कहलाते हैं। यों, भिक्षुशील-आदि भेद से भी शील चतुर्विध है। शीलचतुष्क के तृतीय विभाग में- १. उत्तरकुरुप्रदेशनिवासी जनों का पञ्चशील का अनुल्लङ्घन (अव्यतिक्रम) प्रकृति (स्वभाव) शील है। २ कुल, देश या पाषण्डधारी सम्प्रदायो का अपनी अपनी परम्परा में भावित शील आचारशील कहलाता है। ३. मज्झिमनिकाय में-"आनन्द! यह स्वाभाविक बात (धर्मता) ही है कि जब बोधिसत्त्व माता के गर्भ में आये होते हैं तब से बोधिसत्त्व की माता को पुरुषों के प्रति कामरागचित्त उत्पन्न नहीं होता" कही गयी उक्ति के प्रमाण से बोधिसत्त्व की माता का यह शील धर्मताशील कहलाता है। ४. महाकाश्यप आदि पवित्रमना भिक्षुओं तथा बोधिसत्त्वों द्वारा भावित शील पूर्वहेतुक शील होता है। यों, प्रकृतिशील-आदि के भेद से भी शील चतुर्विध होता है। शीलचतुष्क के चतुर्थ विभाग में- (१) दीघनिकाय में प्रोक्त भगवान् की इस उक्ति के
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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