________________
१. सीलनिदेस पटिसम्भिदायं पन, यस्मा लोके तेसं सत्तानं पकति पि सीलं ति वुच्चति, यं सन्धाय-"अयं सुखसीलो, अयं दुक्खसीलो, अयं कलहसीलो, अयं मण्डनसीलो" ति भणन्ति; तस्मा तेन परियायेन-"तीणि सीलानि, कुसलसीलं अकुसलसीलं अब्याकतसीलं" (ख०५-४९) ति। एवं कुसलादिवसेन पि तिविधं ति वृत्तं । तत्थ अकुसलं इमस्मि अत्थे अधिप्पेतस्स सीलस्स लक्खणादीसु एकेन पि न समेती ति इध न उपनीतं। तस्मा वुत्तनयेनेवस्स तिविधता वेदितब्बा। (३)
सीलचतुक्कानि २८. चतुक्केसु पठमचतुक्के,
योध सेवति दुस्सीले, सीलवन्ते न सेवति । वत्थुवीतिकमे दोसं न पस्सति अविद्दसु॥१॥ मिच्छासङ्कप्पबहुलो इन्द्रियानि न रक्खति।। एवरूपस्स वे सीलं जायते हानभागियं ॥ २॥ यो पनत्तमनो होति सीलसम्पत्तिया इध। कम्मट्ठानानुयोगम्हि न उप्पादेति मानसं ॥ ३॥ तुट्ठस्स सीलमत्तेन अघटन्तस्स उत्तरि। तस्स तं ठितिभागियं सीलं भवति भिक्खुनो॥४॥ सम्पन्नसीलो घटति समाधत्थाय यो पन।।
विसेसभागियं सीलं होति एतस्स भिक्खुनो ॥५॥ अशैक्ष्य कहलाता है। शेष न शैक्ष्य अशैक्ष्य शील कहलाता है। यों, शील के शैक्ष्य आदि भेद से भी तीन भेद किये जा सकते हैं।
पटिसम्भिदामग्ग में- "क्योंकि लोक में उन उन प्राणियों का स्वभाव भी 'शील' कहलाता है, जिसके आधार पर यह सुखशील (सुखस्वभाव) है', 'यह कलह स्वभाव वाला है', 'यह शृङ्गारप्रिय (मण्डनशील) है'-इस प्रकार कहते हैं", इसलिये उक्त ग्रन्थ में आलङ्कारिक (पर्याय) रूप से-"शील तीन हैं-१. कुशल शील, २. अकुशल शील एवं ३. अव्याकृत शील" इस प्रकार कहा गया है। यो. कुशल आदि भेद से भी यह तीन प्रकार का कहा गया है। इनमें अकुशल अर्थ में अभिप्रेत शील किसी भी लक्ष्य से मेल नहीं खाता । अतः इसे छोड़ उपर्युक्त विधि से इसका त्रैविध्य जानना चाहिये । (३)
शीलचतुष्क २८. शीलचतुष्क-विभाग के प्रथम चतुष्क में
(१) जो मूर्ख दुःशीलो (दुष्ट स्वभाव वालों) के संसर्ग में रहता है, शीलवानों से कोई सम्पर्क नहीं रखता और जो (अज्ञानवश) धर्मनियम (वस्तु) के उल्लङ्घन में कोई दोष नहीं देखता, नानाविध मिथ्यासङ्कल्पों से युक्त होकर इन्द्रियों पर निग्रह नही रखता, ऐसे पुरुष का शील पतन की ओर ले जाने वाला (हानभागीय) होता है।। १-२ ।।
(२) जो अपने अर्जित शील से सन्तुष्ट रहता है, परन्तु कर्मस्थान में आगे लगने (अनुयोग) के लिये मन (सङ्कल्प) भी नहीं करता, उस अर्जित शीलमात्र से प्रसन्न परन्तु आगे के लिये प्रयत्न न करने वाले भिक्षु का वह शील स्थितिभागीय कहलाता है।। ३-४ ।।
(३) किन्तु जो शीलसम्पन्न हो ध्यानपूर्वक स्वलक्ष्यसिद्ध्यर्थ प्रयत्नशील रहता है ऐसे भिक्षु का वह शील विशेषभागीय होता है।। ५।।