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________________ २२ विसुद्धिमग्ग दुतियत्तिके - १. अनो अननुरूपं पजहितुकामेन अत्तगरुना अत्तनिगारवेन पवत्तितं अत्ताधिपतेय्यं । २. लोकापवादं परिहरितुकामेन लोकगरुना लोके गारवेन पवत्तितं लोकाधिपतेय्यं । ३. धम्ममहत्तं पूजेतुकामेन धम्मगरुना धम्मगारवेन पवत्तितं धम्माधिपतेय्यं ति । एवं अत्ताधिपतेय्यादिवसेन तिविधं । ततियत्तिके - १. यं दुकेसु 'निस्सितं ' ति वुत्तं तं तण्हादिठ्ठीहि परामट्ठत्ता परामट्ठे । २. पुथुज्जनकल्याणकस्स मग्गसम्भारभूतं सेक्खानुं च मग्गसम्पयुत्तं अपरामट्ठे । ३. सेक्खा सेक्खानं फलसम्पयुत्तं पटिपस्सद्धं ति । एवं परामठ्ठादिवसेन तिविधं । 1 चतुथत्तिके, यं आपत्तिं अनापज्जन्तेन पूरितं, आपज्जित्वा वा पुन कतपटिकम्मं, तं विसुद्धं । आपत्तिं आपन्नस्स अकतपटिकम्मं अविसुद्धं । वत्थुम्हि वा आपत्तिया वा अज्झाचारे वा वेमतिकस्स सीलं वेमतिकसीलं नाम । तत्थ योगिना अविसुद्धं सीलं विसोधेतब्बं, वेमतिके वत्थुज्झाचारं अकत्वा विमति पटिविनेतब्बा - " इच्चस्स फासु भविस्सती " ति । एवं विसुद्धादिवसेन तिविधं । पञ्चमत्तिके, चतूहि अरियमग्गेहि, तीहि च सामञ्ञफलेहि सम्पयुत्तं सीलं सेक्खं । अरहत्तफलसम्पयुत्तं असेक्खं, सेसं नेवसेक्खनासेक्खं ति । एवं सेक्खादिवसेन तिविधं । द्वितीय शीलत्रिक में स्वयं के लिये अननुकूल (अननुरूप - प्रतिकूल) को छोड़ने की इच्छा से आत्मगौरव या आत्मसम्मान की वृद्धि के लिये भावित शील आत्माधिपत्य शील कहलाता है। लोक-निन्दा हटाने की इच्छा से अपने लोकगौरव या लोकसम्मान की वृद्धि के लिये भावित शीललोकाधिपत्य शील कहलाता है। धर्म के महत्त्व को पूजित करने की इच्छा से धर्म का गौरव तथा सम्मान बढ़ाने हेतु प्रवर्त्तित शील धर्माधिपत्य शील कहलाता है। यों, इन आत्माधिपत्य-आदि भेद से भी शील त्रिविध है । शीलत्रिक के तृतीय विभाग में- शील-द्विकों के गणना- प्रसङ्ग में जो शील निश्रित अनि भेद से विभक्त हुआ है वह तृष्णा एवं दृष्टि (मिथ्या धारणा) द्वारा संश्लिष्ट (सम्बद्ध) होने से परामृष्ट शील है, कल्याणक पृथग्जन (पृथग्जनों में कल्याणकारी शीलों से युक्त अंनार्य) के लिये मार्गप्राप्ति का साधन बना हुआ और शैक्ष्य जन (स्त्रोत आपन्न, सकृदागामी एवं अनागामी पुद्गल) के लिये मार्गप्राप्ति का साधन बना हुआ शील अपरामृष्ट शील कहलाता है। शैक्ष्य-अशैक्ष्य के फल से सम्प्रयुक्त शील प्रतिप्रश्रब्ध शील कहलाता है। शीलत्रिक के चतुर्थ विभाग में जिसने कोई अपराध ( आपत्ति, दोष) नहीं किया है, या अपराध करके पुनः उसका प्रतीकार कर लिया है, उसके द्वारा पूर्ण किया गया शील विशुद्ध शील कहलाता है। जिसने अपराध करके प्रतीकार नहीं किया उसका शील अविशुद्ध शील है। जो वस्तु, दोष, व्यतिक्रम (अध्याचार) के विषय में सन्देह (विमति) में पड़ गया है उसका शील वैमतिक शील कहलाता है। ग्रन्थकार का मत कहाँ योगावचर को अविशुद्ध शील का विशोधन करना चाहिये, जिस विषय मे सन्देह हो वहाँ वस्तु का उल्लङ्घन न कर, उससे पलायन न करते हुए, उस सन्देह को दूर (करने का उपाय) करना चाहिये-यही उसके लिये हितकर होगा । यो विशुद्ध आदि भेद से भी शील के तीन भेद किये जा सकते हैं। 'शील-त्रिक के पञ्चम विभाग में चार आर्यमार्गे (स्रोत आपन्न सकृदागामी अनागामी एवं अर्हत्) एव तीन श्रामण्यफलों से युक्त शील शैक्ष्य शील होता है। अर्हत्त्व - फल से सम्प्रयुक्त शील
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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