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________________ १. सीलनिस २१ विमुत्तित्राणदस्सनं अनुपादापरिनिब्बानत्थाय । एतदत्था कथा, एतदत्था मन्तना, एतदत्था उपनिसा, एतदत्थं सोतावधानं, यदिदं अनुपादाचित्तस्स विमोक्खो" (वि० ५- २९०, १०) ति । लोकुत्तरं भवनिस्सरणावहं होति, पच्चवेक्खणञाणस्स च भूमी ति । एवं लोकियलोकुत्तरवसेन दुविधं । (२) सीत्तिकानि २७. तिकेसु पठमत्तिके - १. हीनेन छन्देन चित्तेन वीरियेन वीमंसाय वा पवत्तितं हीनं । मज्झिमेहि छन्दादीहि पवत्तितं मज्झिमं । पणीतेहि पणीतं । २. यसकामताय वा समादिनं हीनं । पुञ्ञफलकामताय मज्झिमं । 'कत्तब्बमेविदं' ति अरियभावं निस्साय समादिन्नं पणीतं । ३. " अहमस्मि सीलसम्पन्नो, इमे पनञ्ञे भिक्खू दुस्सीला पापधम्मा" (म०नि० १ - २५० ) ति एवं अत्तुक्कंसनपरवम्भनादीहि उपक्किलिट्टं वा हीनं । अनुपक्किलिट्ठ लोकियं सीलं मज्झिमं । लोकुत्तरं पणीतं । ४. तण्हावसेन वा भवभोगत्थाय पवत्तितं हीनं । अत्तनो विमोक्खत्थाय पवत्तितं मज्झिमं । सब्बसत्तानं विमोक्खत्थाय पवत्तितं पारमितासीलं पणीतं ति । एवं हीन - मज्झिम-पणीतवसेन तिविधं । अवस्था) के लिये प्रश्रब्धि सुख के लिये, सुख समाधि (चित्त की एकाग्रता) के लिये, समाधि यथार्थ (यथाभूत, सत्य) ज्ञान तथा दर्शन के लिये एवं यथार्थ ज्ञान और दर्शन निर्वेद (सांसारिक सुखों से ग्लानि) के लिये, निर्वेद विराग के लिये, विराग विमुक्ति के ज्ञान-दर्शन के लिये तथा विमुक्ति का ज्ञान . एवं दर्शन उपादानरहित परिनिर्वाण (जिसकी प्राप्ति के बाद पाँच उपादानस्कन्धों की उत्पत्ति असम्भव हो जाती है) के लिये है। इसी (परिनिर्वाण) के लिये (शास्त्र की यह समग्र) कथा-वार्ता है, उसकी मन्त्रणा (विचार, चिन्तन) है, इसी के लिये उपनिश्रय (यथोक्त कारणपरम्परा) और इसी के लिये ध्यान देकर (गुरूपदेश का) सुनना है। निष्कर्ष यह है कि योगी का समग्र क्रियाकलाप केवल उपादानसहित परिनिर्वाण की प्राप्ति के लिये है।" और लोकोत्तर शील भवनिःसरण (मुक्ति) को लाने वाला और प्राप्त मार्ग फल को देखने वाले (प्रत्यवेक्षण) ज्ञान की भूमि । इस प्रकार लौकिक लोकोत्तर भेद से भी शील द्विविध है ।। (२) शीलत्रिक २७. त्रिक विभाग में से प्रथम शीलत्रिक में- हीन छन्द, हीन वीर्य (उत्साह) तथा हीन मीमांसा (मनन-चिन्तन) से प्रवृत्त शील हीन शील कहलाता है; मध्यम (न हीन न उत्तम) छन्द आदि प्रवृत्तशील मध्यम शील एवं प्रणीत (उत्तम) छन्द आदि से प्रवृत्त शील प्रणीत शील कहलाता है। अथवा लोक में स्वकीर्ति चाहने की इच्छा यशः कामता से प्रवृत्त शील हीन शील, पुण्यफल की इच्छा से प्रवृत्त शील मध्यम शील एवं 'यह मेरा कर्तव्य है' - इस आर्य (श्रेष्ठ) भावना से प्रवृत्त शील प्रणीत शील कहलाता है। 'मैं ही शीलसम्पन्न हूँ, ये दूसरे भिक्षु तो दुःशीलधर्मा हैं, पापकारी हैं'-ऐसी आत्म-प्रशंसा एवं दूसरे के अपमान की इच्छा से कलुषित (उपक्लिष्ट) शील हीन शील, उक्त इच्छा न करने से अनुपक्लिष्ट होने पर लौकिक शीलों का आचरण मध्यम शील और लोकोत्तर शील प्रणीत शील कहलाता है। अथवा - तृष्णापूर्ति के लिये या भव-सम्पत्ति व भोग-सम्पत्ति के अर्जन हेतु साधित शील हीन शील, केवल अपनी मुक्ति के लिये साधित शील मध्यम शील तथा समग्र प्राणियों (सत्त्वों) की मुक्ति के लिये भावित शील प्रणीत शील कहलाता है। यों, हीन मध्येम प्रणीत भेद से भी शील तीन प्रकार का होता है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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