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________________ _ विसुद्धिमग्ग छट्ठदुके, लाभ-यस जाति-अङ्ग-जीवितवसेन दिट्ठपरियन्तं सपरियन्तं नाम। विपरीतं अपरियन्तं । वुत्तं पि चेतं पटिसम्भिदायं-"कतमं तं सीलं सपरियन्तं? अत्थि सीलं लाभपरियन्तं, अस्थि सीलं यसपरियन्तं, अत्थि सीलं आतिपरियन्तं. अस्थि सीलं अङ्गपरियन्तं, अस्थि सीलं जीवितपरियन्तं। कतमंतं सीलं लाभपरियन्तं? इधेकच्चो लाभहेतु लाभपच्चया लाभकारणा यथासमादिन्नं सिक्खापदं वीतिक्कमति, इदंतं सीलं लाभपरियन्तं" (खु०५-४८)ति। एतेनेव उपायेन इतरानि पि वित्थारेतब्बानि। अपरियन्तविस्सजने पि वुत्तं-"कतमं तं सीलं न लाभपरियन्तं? इधेकच्चो लाभहेतु लाभपच्चया लाभकारणा यथासमादिनं सिक्खापदं वीतिकमाय चित्तं पि न उप्पादेति, किं सो वीतिक्कमिस्सति! इदं तं .सीलं न लाभपरियन्तं" (खु०५-४८) ति। एतेनेव उपायेन इतरानि पि वित्थारेतब्बानि। एवं सपरियन्तापरियन्तवसेन दुविधं। सत्तमदुके, सब्बं पि सासवं सील लोकियं, अनासवं लोकुत्तरं। तत्थ लोकियं भवविसेसावह होति, भवनिस्सरणस्स च सम्भारो। यथाह-"विनयो संवरत्थाय, संवरो अविप्पटिसारत्थाय, अविप्पटिसारो पामोजत्थाय, पामोजं पीतत्थाय, पीति पस्सद्धत्थाय, पस्सद्धि सुखत्थाय, सुखं समाधत्थाय, समाधि यथाभूतबाणदस्सनत्थाय, यथाभूतत्राणदस्सनं निब्बिदत्थाय, निब्बिदा विरागत्थाय, विरागो विमुत्तत्थाय, विमुत्ति विमुत्तित्राणदस्सनत्थाय, कहलाता है। २. प्राण रहने तक (आजीवन) जिस शील की साधना की जाय वह आप्राणकोटिक शील कहलाता है। यों, कालपर्यन्त व आप्राणकोटिक भेद से यह शील द्विविध है। पाठ शीलद्विक में- सपर्यन्त-अपर्यन्त भेद से शील द्विविध माना गया है। उनमें लाभ, यश, ज्ञाति (नाते-रिश्तेदार), अङ्ग एवं जीवन के लिये जो शील परिमित होता दिखायी देता है वह सपर्यन्त शील है। इसके विपरीत (अपरिमित) अपर्यन्त शील कहलाता है। पटिसम्भिदामग्ग में कहा भी गया है-"सपर्यन्त शील क्या है? लाभ से परिमित, यश से परिमित, ज्ञाति से...., अङ्ग से..... जीवन से परिमित शील ही सपर्यन्त शील (कहलाता) है। लाभ से परिमित शील कौन सा है? यहाँ कोई कोई पुद्गल किसी लाभ के हेतु या प्रत्यय से लाभ के कारण ग्रहण किये हुए शील का उल्लङ्घन करता हैयह 'लाभ से परिमित' शील है।" इसी प्रकार अन्य यश-ज्ञाति आदि का भी विस्तार कर लेना चाहिये। वहाँ, पटिसम्भिदामग्ग के उसी प्रकरण में, अपर्यन्त शील के विषय में किये गये प्रश्न का उत्तर भी दिया गया है- "लाभ से परिमित न होने वाला शील कौन सा है? यहाँ कोई कोई पुद्गल लाभ के हेतु या प्रत्यय से, लाभ के कारण, ग्रहण किये गये शिक्षापदों का उल्लङ्घन करने का विचार भी नहीं करता, फिर उल्लङ्घन करने की तो बात ही कहाँ! यही वह शील है जो लाभपरिमित नहीं है।" इसी पद्धति से यश-ज्ञाति आदि के विषय में भी विस्तार कर लेना चाहिये। यों, यह शील सपर्यन्तअपर्यन्त भेद से भी द्विविध है। सप्तम शीलद्विक विभाग में- लौकिक-लोकोत्तर भेद से भी शील द्विविध है। वहाँ सभी सानव शील लौकिक हैं और अनास्रव शील लोकोत्तर (आस्रव चतुर्विध होते हैं-१.काम, २. भव, ३. दृष्टि एवं ४. अविद्या)। वहाँ लौकिक शील भव (आगामी जीवन-सन्तति) में अभ्युन्नति लाने वाला एवं भव से निःसरण, मुक्ति का साधन होता है। जैसा कि कहा है- "विनयबोधक शिक्षापद संवर के. लिये है, संवर अपश्चात्ताप के लिये, अपश्चात्ताप प्रमोद (प्रीति) के लिये है, प्रीति प्रश्रब्धि (शान्तता-शान्त
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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