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१. सीलनिद्देस
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अधिवचनं। तं हि मग्गस्स आदिभावभूतं, पुब्बभागे येव परिसोधेतब्बतो । तेनाह - "पुब्बे व खो पनस्स कायकम्मं वचीकम्मं आजीवो सुपरिसुद्धा होती" (म० नि० ३ - ३९१ ) ति । यानि वा सिक्खापदानि " खुद्दानुखुद्दकानी" ति वृत्तानि, इदं आभिसमाचारिकसीलं । सेसं आदिब्रह्मचरियकं । उभतोविभङ्गपरियापन्नं वा आदिब्रह्मचरियकं । खन्धकवत्तपरियापन्नं आभिसमाचरिकं । तस्स सम्पत्तिया आदिब्रह्मचरियकं सम्पज्जति । तेनेवाह - " सो बत, भिक्खवे, भिक्खु आभिसमाचारिकं धम्मं अपरिपूरेत्वा आदिब्रह्मचरियकं धम्मं परिपूरेस्सती ति नेतं ठानं विज्जति" (अं० नि० २ - २८४) ति । एवं आभिसमाचारिकआदिब्रह्मचरियकवसेन दुविधं ।
ततियदुके, पाणातिपातादीहि वेरमणिमत्तं विरतिसीलं । सेसं चेतनादि अविरतिसीलं ति । एवं विरति - अविरतिवसेन दुविधं ।
चतुथदुके, निस्सयो ति द्वे निस्सया - १. तण्हानिस्सयो च, २. दिट्ठिनिस्सयो च । तत्थ यं “इमिनाहं सीलेन देवो वा भविस्सामि, देवञ्ञतरो वा" (दी०नि० ३--१८५) ति एवं भवसम्पत्तिं आकङ्क्षमानेन पवत्तितं, इदं तण्हानिस्सितं । यं "सीलेन सुद्धी" ति एवं सुद्धिदिट्ठिया पवत्तितं, इदं दिठ्ठिनिस्सितं । यं पन लोकुत्तरं लोकियं च तस्सेव सम्भारभूतं, इदं अनिस्सितं ति । एवं निस्सितानिस्सितवसेन दुविधं ।
पञ्चमंदुके, कालपरिच्छेदं कत्वा समादिनं सीलं कालपरियन्तं । यावजीवं समादियित्वा तथेव पवत्तितं आपाणकोटिकं ति एव कालपरियन्त- आपाणकोटिकवसेन दुविधं ।
है। इसीलिये (भगवान् ने) ऐसा कहा है-"साधना के प्रारम्भिक भाग में योगावचर के कायकर्म, वाक्कर्म तथा आजीव (=आजीविका) परिशुद्ध हो जाते हैं।" (ख) अथवा जो भगवान् द्वारा कहे गये क्षुद्राक्षुद्र (छोटे, बहुत छोटे) शिक्षापद हैं, ये सब आभिसमाचारिक शील तथा अवशिष्ट आदिब्रह्मचर्यक शील कहलाते हैं। (ग) अथवा - उभतोविभङ्ग (भिक्षुविभङ्ग एवं भिक्षुणीविभङ्ग – दोनों) में आये शिक्षापदों का पालन आदिब्रह्मचर्यक शील में परिगणित है और स्कन्धव्रत (महावग्गक्खन्धक एवं चुल्लवग्गक्खन्धक) में आये शिक्षापदों के पालन से आदिब्रह्मचर्यक शील भी पूर्ण हो जाता है। इसीलिए कहा है – “भिक्षुओ ! कोई योगावचर आभिसमाचारिक शील की पूर्ति के विना आदिब्रह्मचर्यक शील की पूर्ति कर पायगा - यह सम्भव ही नहीं है ।" इस प्रकार आभिसमाचारिक व आदिब्रह्मचर्यक भेद से भी शील द्विविध है। तृतीय द्विक में - केवल प्राणातिपातादि से विरत रहना ही विरतिशील है। शेष चेतना आदि अविरतिशील हैं। यों विरति अविरति के भेद से भी शील द्विविध है ।
चतुर्थ द्विक में - निश्रय एवं अनिश्रय भेद से भी शील द्विविध होता है। निश्रय दो होते हैं१. तृष्णानि श्रय एवं २ दृष्टिनिश्रय। उनमें - (क) "इस शील के सहारे मैं चातुर्महाराजिक देव या अन्य कोई देव हो जाऊँ" - ऐसी भव- सम्पत्ति (जन्म धारण करना) चाहने वाले योगावचर द्वारा भावित किया गया शील तृष्णासन्निश्रित शील कहलाता है। (ख) और 'शील (के आचरण) से ही (चित्त की) शुद्धि होगी - यों शुद्धि के विचार (दृष्टि) से भावित किया जाने वाला शील दृष्टिसन्निश्रित शील कहलाता है। २. और जो लोकोत्तर एवं लौकिक ( उसी लोकोत्तर का साधनभूत) शील है वह अनिश्रित शील कहलाता है। यों, निश्रित- अनिश्रित भेद से भी शील द्विविध है।
पञ्चम शीलद्विक में - १. काल ('इस दिन या इस रात्रि में', या 'इतने घण्टे इतनी मिनट में' आदि समय) की सीमा (कालपरिच्छेद) बाँध कर किया जाने वाला शील कालपर्यन्त शील