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विसुद्धिमग्ग सुद्धिसीलं, ४. अपरामट्ठपारिसुद्धिसीलं, ५. पटिपस्सद्धिपारिसुद्धिसीलं" (खु० ५-४७) ति। तथा पहान-वेरमणी-चेतना-संवर-अवीतिक्कमवसेन।
सीलेककदुकानि २५. तत्थ एकविधकोट्ठासे अत्थो वुत्तनयेनेव वेदितब्बो। (१)
२६. दुविधकोट्ठासे यं भगवता 'इदं कत्तब्ब' ति पंञत्तसिक्खापदपूरणं, तं चारित्तं। यं'इदं न कत्तब्बं' ति पटिक्खित्तस्स अकरणं, तं वारित्तं । तत्रायं वचनत्थो-चरन्ति तस्मि, सीलेसु परिपूरकारिताय पवत्तन्ती ति चारित्तं । वारितं तायन्ति रक्खन्ति तेना ति वारित्तं । तत्थ सद्धाविरियसाधनं चारित्तं, सद्धासाधनं वारित्तं । एवं चारित्तवारित्तवसेनं दुविधं।।
दुतियदुके, अभिसमाचारो ति उत्तमसमाचारो। अभिसमाचारो एव आभिसमाचारिकं। अभिसमाचारं वा आरब्भ पञ्जत्तं आभिसमाचारिकं, आजीवट्ठमकतो अवसेससीलस्सेतं
अधिवचनं । मग्गब्रह्मचरियस्स आदिभावभूतं ति आदिब्रह्मचरियकं, आजीवट्ठमकसीलस्सेतं है। जैसे कि पटिसम्भिदामग्ग में कहा गया है- "शील पाँच होते हैं-१. पर्यन्तपरिशुद्धि शील, २. अपर्यन्तपरिशुद्धि शील, ३. परिपूर्णपरिशुद्धि शील, ४. अपरामृष्टपरिशुद्धि शील एवं ५. प्रतिप्रश्रब्धिपरिशुद्धि शील।"
वैसे ही १. प्रहाण, २. विरमण, ३. चेतना, ४. संवर एवं ५. अनुल्लङ्घन भेद से भी यह शील पञ्चविध (पञ्चक-पाँच पाँच प्रकार का) है।
शील के (उपर्युक्त) एकक, द्विक का विवरण (व्याख्यान) २५. एकक विभाग- वहाँ शील के एक प्रकार वाले विभाग (कोट्ठास) का विस्तृत व्याख्यान पूर्वकृत (पृष्ठ ९-१०) व्याख्यान के अनुसार ही समझना चाहिये। (यहाँ उससे अधिक हमें कुछ नहीं कहना है।) (१)
२६.द्विक-दो प्रकारवाले विभाग में, प्रथम द्विक के अन्तर्गत- १."यह (सुचरित) करना चाहिये"- कह कर भगवान् ने जिन शिक्षापदों का विधान किया है, उनका पालन चारित्र कहलाता है और २."यह (दुश्चरित) नहीं करना चाहिये" कह कर जिन निषेधपरक नियमों का शिक्षापदों में विधान किया है उनसे दूर रहना वारित्र कहलाता है। इन दोनों शब्दों का स्पष्टार्थ यह है-उस (शील) में समगीभूत होकर वे गुण चलते हैं, उनकी परिपूर्ति में वे सहायक होते हैं, अतः उन्हें चारित्र कहा जाता है। और जो गुण भगवान् द्वारा निषिद्ध कर्मों से दूर रहने की प्रेरणा देते हैं, योगावचर का उनसे त्राण (बचाव, रक्षा) करते हैं, अतः उन्हें वारित्र कहा गया है। वहाँ श्रद्धा और वीर्य (=सतत उद्योग) से चारित्र को तथा भगवान् के उपदेशों में श्रद्धा से वारित्र को पाया जा सकता है। यों, यह शील चारित्र एवं वारित्र भेद से दो प्रकार का है।
आगे इसी द्वितीय द्विक में, अभिसमाचार एवं आदिब्रह्मचर्य भेद से भी यह शीलद्विक बताया है। वहाँ (क) अभिसमाचार का अर्थ है-उत्तम सदाचार (सम्यगाचरण)। अभिसमाचार के ही अर्थ में आभिसमाचारिक शब्द प्रयुक्त हुआ है। (ख) अथवा-अभिसमाचार को आधार मानकर बुद्धवचन में जो कुछ भी कहा गया है वह 'आभिसमाचारिक' है। (ग) इस 'आभिसमाचारिक' शब्द से-आजीव है आठवाँ अङ्ग (चार वाचिक कुशल एवं आठवाँ सम्यगाजीव) जिसका, उस शील को छोड़कर अन्य शील का ग्रहण होता है।
(क) मार्गब्रह्मचर्य (मार्ग को आधार मानकर की जाने वाली धर्मसाधना) का आदि (प्रारम्भिक) होने से यह (शील) आदिब्रह्मचर्यक कहलाता है। यह आदिब्रह्मचर्य उपर्युक्त आजीवाष्टमक शील का ही नाम (पर्याय) है। साधना के पूर्वभाग में ही परिशुद्ध होने के कारण वह मार्ग की प्रारम्भिक अवस्था