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१. सीलनिद्देस
१७ इति सीलस्स विज्ञेय्यं, आनिसंसकथामुखं ॥ ति ॥ १० ॥
(५) सीलप्पभेदो २४. इदानि यं-वुत्तं कतिविधं चेतं सीलं ति? तत्रिदं विस्सजनंसब्बमेव ताव इदं सीलं अत्तनो सीलनलक्खणेन एकविधं।
१. चारित्त-वारित्तवसेन दविधं, तथा २. आभिसमाचारिक-आदिब्रह्मचरियकवसेन, ३. विरति-अविरतिवसेन, ४. निस्सित-अनिस्सितवसेन, ५ कालपरियन्तआपाणकोटिकवसेन, ६. सपरियन्त-अपरियन्तवसेन, ७. लोकिय-लोकुत्तरवसेन च।
तिविधं १. हीन-मज्झिम-पणीतवसेन, तथा २. अत्ताधिपतेय्य-लोकाधिपतेय्यधम्माधिपतेय्यवसेन, ३.परामट्ठ-अपरामट्ठ-पटिप्पस्सद्धिवसेन, ४. विसुद्ध-अविसुद्धवेमतिकवसेन, ५. सेक्ख-असेक्ख-नेवसेक्खनासेक्खवसेन च।
चतुब्बिधं १. हानभागिय-ठितिभागिय-विसेसभागिय-निब्बेधभागियवसेन, तथा २. भिक्खु-भिक्खुनी-अनुपसम्पन्न-गहट्टसीलवसेन, ३. पकति-आचार-धम्मतापुब्बहेतुकसी-लवसेन, ४. पातिमोक्खसंवर-इन्द्रियसंवर-आजीवपारिसुद्धि-पच्चयसनिस्सितसीलवसेन च।
पञ्चविधं परियन्तपारिसुद्धिसीलादिवसेन । वुत्तं पि चेतं पटिसम्भिदायं-"पञ्च सीलानि-१. परियन्तपारिसुद्धिसीलं, २. अपरियन्तपारिसुद्धिसीलं, ३. परिपुण्णपारि- यों गुणों के आधार (मूल) भूत एवं दोषदौर्बल्यकारक शील का महत्त्व उसके इस उपर्युक्त माहात्म्य-वर्णन से भी जान लेना चाहिये।। १०॥
(५) शील के प्रकार (भेद) २४. अब, वह जो प्रश्न किया गया था कि शील कितने प्रकार का होता है?-उसका उत्तर
यह है
(क) एकविध शील- यह समग्र शीलसम्भार अपने 'शीलन-लक्षण' के कारण एकविध (एकक-एक ही प्रकार का) कहा जा सकता है।
__ (ख) द्विविध शील-पुनः यह शील (विश्लेषण किये जाने पर) चारित्र एवं वारित्र भेद से, आभिसमाचारिक एवं आदिब्रह्मचर्यक भेद से, विरति एवं अविरति भेद से, निश्रित एवं अनिश्रित भेद से, कालपर्यन्त एवं आप्राणकोटिक भेद से, सपर्यन्त एवं अपर्यन्त भेद से और लौकिय और लोकोत्तर भेद से द्विविध (द्विक-दो प्रकार का) भी कहलाता है।
(ग) त्रिविध शील-फिर यही शील (और अधिक विश्लेषण किये जाने पर) हीन, मध्यम एवं प्रणीत तथा आत्माधिपत्य, लोकाधिपत्य एवं धर्माधिपत्य; या परामृष्ट, अपरामृष्ट एवं प्रश्रब्धि भेद से; या विशुद्ध, अविशुद्ध एवं वैमतिक भेद से तथा शैक्ष्य, अशैक्ष्य एवं न शैक्ष्य न अशैक्ष्य भेद से त्रिविध (त्रिक तीन प्रकार का) भी कहलाता है।
(घ) चतुर्विध शील-फिर यही शील (और अधिक विश्लेषण किये जाने पर) चार प्रकार का भी है। जैसे-हानभागीय, स्थितिभागीय, विशेषभागीय एवं निर्वेधभागीय; भिक्षुशील, भिक्षुणीशील, अनुपसम्पन्नशील एवं गृहस्थशील; प्रकृतिशील, आचारशील, धर्मताशील एवं पूर्वहेतुकशील; प्रातिमोक्षसंवर, इन्द्रियसंवर, आजीवपरिशुद्धि एवं प्रत्ययसनिश्रित-इन भेदों से यह चतुर्विध (चतुष्क=चार चार प्रकार का) भी शास्त्र में वर्णित है।
(ङ) पञ्चविध शील- यह शील पर्यन्तपरिशुद्धि शील आदि भेद से पाँच भेदों से भी वर्णित