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________________ विसुद्धिमग्ग 'न गङ्गा यमुना चा पि, सरभू वा सरस्वती। निन्नगा वा चिरवती, मही वा पि महानदी ॥२॥ - सकुणन्ति विसोधेतुं, तं मलं इध पाणिनं। विसोधयति सत्तानं, यं वे सीलजलं मलं ॥३॥ न तं सजलदा वाता, न चापि हरिचन्दनं । नेव हारा न मणयो न चन्दकिरणङ्करा ॥४॥ समयन्तीध सत्तानं परिळाहं सुरक्खितं। यं समेति इदं अरियं सीलं अच्चन्तसीतलं ॥५॥ सीलगन्धसमो गन्धो, कुतो नाम भविस्सति! यो समं अनुवाते. च, पटिवाते च वायति॥६॥ सग्गारोहणसोपानं, अखं सीलसमं कुतो! द्वारं वा पन निब्बाननगरस्स पवेसने॥७॥ सोभन्तेवं न राजानो मुत्तामणिविभूसिता। यथा सोभन्ति यतिनो सीलभूसनभूसिता ॥८॥ अत्तानुवादादिभयं विद्धंसयति सब्बसो। जनेति कित्तिहासं च सीलं सीलवतं सदा॥९॥ गुणानं मूलभूतस्स, दोसानं बलघातिनो। इस तरह, 'पश्चात्ताप न करना' आदि नानाविध गुणों की प्राप्ति ही शील का माहात्म्य है। . २३. और भी जिस शील के विना बुद्धश्रावक कुलपुत्रों की बुद्धशासन में गति (प्रतिष्ठा) ही नहीं हो पाती, उस सील के माहात्म्य व वैशिष्ट्य की सीमा कौन बता सकता है!||१|| प्राणियों के जिस मल (चित्तविकार) को न गङ्गा न यमुना, न सरयू न सरस्वती, न मही अथवा महानदी ही धो पाती है; वह शील प्राणियों के उस मल को भी मूलतः उच्छिन्न कर सकता है।।२-३॥ प्राणियों के जिस परिदाह (जलन, ताप) को न सावन-भादो की वर्षा, न हरिचन्दन, न कोई हार या मणि, न चन्द्रमा की शीतल चाँदनी ही शान्त कर पाती हो उसे यह सुरक्षित, अत्यन्त शीतल आर्यशील सरलता से शान्त कर सकता है।। ४-५।। - शील की गन्ध के समान और कौन गन्ध होगी, जो अनुकूल-प्रतिकूल गति के रहते भी, समानरूप से एक सी बहती-फैलती रहती है!।।६।। स्वर्गलोक (सुगति) तक पहुँचने या निर्वाण-नगर में प्रवेश के लिये शील के समान दूसरी कौन सी सीढी (सोपान) या द्वार हो सकते हैं! ।। ७।। राजा लोग मोतियों की माला एवं मणिरत्वजटित हार पहनकर भी उतने शोभित नहीं होते, जितना कोई शीलभूषणधारी भिक्षु. लौकिक (व्यवहार) दृष्टि से अकिञ्चन दीखते हुए भी, इस जगत् में सर्वत्र शोभित होता है।। ८।। . __ शीलवान् के लिए उसका शील आत्मनिन्दा (दूसरों द्वारा की जाने वाली उसकी निन्दा) आदि भयों को सर्वथा दूर कर देता है! एवं लोक में उसका यश दिनानुदिन फैलता ही रहता है, जिससे उसकी शोभा (छवि) बढ़ती जाती है।। ९ ।।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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