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१. सीलनिद्देस
१५ कतमे पञ्च? इध, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो अप्पमादाधिकरणं महन्तं भोगक्खन्धं अधिगच्छति, अयं पठमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।
"पुन च परं, गहपतयो, सीलवतो सीलसम्पन्नस्स कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति, अयं दुतियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।
"पुन च परं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो यज्ञदेव परिसं उपसङ्कमति- यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं, विसारदो उपसङ्कमति अमङ्कभूतो, अयं ततियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।
"पुन च परं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो असम्मूळ्हो कालं करोति, अयं चतुत्थो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।
__ "पुन च परं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपजति, अयं पञ्चमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाया" (दी०नि० २-६९) ति।
२२. अपरे पि-"आकलेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु सब्रह्मचारीनं पियो च अस्सं, मनापो च, गरु च भावनीयो चा ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी" (म०नि० १-४४) ति आदिना नयेन पियमनापतादयो आसवक्खयपरियोसाना अनेका सीलानिसंसा वुत्ता।
एवं अविप्पटिसारादिअनेकगुणानिसंसं सीलं॥ २३. अपि च
सासने कुलपुत्तानं, पतिट्टा नत्थि यं विना।
आनिसंसा परिच्छेदं, तस्स सीलस्स को वदे ॥१॥ हैं- १. गृहपतियो! शीलवान् शीलसम्पन्न पुरुष प्रमाद में न पड़ने के कारण बहुत अधिक कामभोग (धन-धान्यादि) सम्पत्ति प्राप्त करता है-यह शीलवान् की शीलसम्पत्ति का प्रथम गुण है।
२."गृहपतियो! इस शीलवान् शीलसम्पन्न का सभी दिशाओं में 'यह बहुत अधिक शीलवान् है'- ऐसा मङ्गलमय यश फैलने लगता है-यह इस शीलवान् की शीलसम्पत्ति का दूसरा गुण है। . ३. “फिर गृहंपतियो! वह शीलवान् शीलसम्पन्न पुरुष जिस जिस भी परिषद् (सभा) में जाता है-फिर भले ही वह क्षत्रियों की परिषद् हो, या ब्राह्मणों की, वैश्यों (गृहपतियों) की हो या किन्हीं श्रमणों की वहाँ वह निर्भीक, चतुर वक्ता, व निःसङ्कोच (अमङ्कुभूत) होकर जाता है, मूक (गूंगे-बहरे) की तरह नहीं-यह उस शीलवान् की शीलसम्पत्ति का तीसरा गुण है।
___४. "और फिर गृहपतियो! वह शीलवान् शीलसम्पन्न पुरुष अविमूढ़ (भ्रमरहित, चेतन अवस्था में) रह कर मृत्यु को प्राप्त होता है-यह शीलवान् की शीलसम्पत्ति का चौथा गुण है।
५."और फिर गृहपतियो! वह शीलवान् शीलसम्पन्न पुरुष, शरीर छूटने पर मरने के बाद, सुगति को प्राप्त हो स्वर्गलोक में उत्पन्न होता है - यह उस शीलवान् की शीलसम्पत्ति का पाँचवाँ गुण
२२. इसी तरह, इस शीलाचरण के दूसरे भी गुण हैं, जैसे- “भिक्षुओ! यदि कोई भिक्षु यह चाहे कि वह अपने दूसरे सब्रह्मचारियों (साथियों, गुरुभाइयों) को प्रिय लगे, उनका प्रेमपात्र बना रहे, उनके द्वारा स्नेह-सम्मान की दृष्टि से देखा जाय, तो उसे शीलों की पूर्ति में अधिक ध्यान देना चाहिये" (म०नि० १-४४)-इस बुद्धवचन के आधार से प्रिय-मनाप आदि से लेकर आश्रवक्षय (अर्हत्त्व) तक शील के अनेक गुण कहे गये हैं।