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विसुद्धिमग किच्चसम्पत्ति अत्थेन रसो नाम पवुच्चति ॥ तस्मा इदं सीलं नाम किच्चट्टेन रसेन दुस्सील्यविद्धंसनरसं, सम्पत्तिअत्थेन रसेन अनवजरसं ति वेदित। लक्खणादीसु हि किच्चमेव सम्पत्ति वा रसो ति वुच्चति।
सोचेय्यपचुपट्टानं तयिदं, तस्स विहि।
ओत्तप्पं च हिरी चेव पद ट्ठानं ति वण्णितं॥ तयिदं सीलं "कायसोचेय्यं, वचीसोचेय्यं, मनोसोचेय्यं" (अं०नि० १-२५२) ति एवं वुत्तसोचेय्यपच्चुपट्टानं, सोचेय्यभावेन पच्चुपट्ठाति, गहपभावं गच्छति। हिरोत्तप्पं च पनस्स विहि पट्टानं ति वण्णितं, आसनकारणं ति अत्थो। हिरोत्तप्पे हि सति सीलं उप्पज्जति चेव तिट्ठति च। असति नेव उप्पज्जति, न तिट्ठती ति। एवं सीलस्स लक्खण-रस-पच्चुपट्ठान-पदट्ठानि वेदितब्बानि॥
(४)सीलानिसंसं २०. किमानिसंसं सीलं ति? अविप्पटिसारादिअनेकगुणपटिलाभानिसंसं। वुत्तं हेतं-"अविप्पटिसारत्थानि खो, आनन्द, कुसलानि सीलानि अविप्पटिसारानिसंसानी" (अं०नि०.४-३५७) ति।
२१. अपरं पि वुत्तं-"पश्चिमे, गहपतयो, आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाय।
'कृत्य' के अर्थ में दुःशीलता (अनाचार) का नाश (विध्वंसन) एवं 'सम्पत्ति के अर्थ में निर्दुष्ट अनिन्दनीय अनवद्य गुणवाला ही 'रस' है। कृत्य और सम्पत्ति के अर्थ में भी इसे 'रस' कहा जाता है। .. इसलिये इस शील को कृत्य के अर्थ में-कदाचरण (दौःशील्य) को नष्ट करने में सहायक एवं सम्पत्ति के अर्थ में अनिन्दय रस जानना चाहिये।
लक्षण-आदि के व्याख्यानप्रसङ्ग में सहायक होना कृत्य ही 'सम्पत्ति' या 'रस' कहलाता है।
प्रत्युपस्थान- पण्डित जनों द्वारा. 'उस शील का परिशुद्ध होना' ही उसके जानने का आकार (प्रत्युपस्थान-पच्युपट्टान) बताया गया है।
पदस्थान- तथा शास्त्र में, सोच (अपत्राप्य) एवं लज्जा (ही) ही इस शील के पदस्थान (आसन्न कारण) के रूप में
... वह शील "देह की परिशुद्धि है, पाणी की परिशुद्धि है, मन की परिशुद्धि है" (अं० नि०१२५२) इस प्रकार बुद्धवचन में कथित “परिशुद्धि-प्रत्युपस्थान' कहलाता है; क्योंकि वह शील परिशुद्धि के रूप (आकार) में जाना जाता है, ग्रहण किया जाता है। विद्वानों द्वारा ही एवं अपत्राप्य इस शील का 'पदस्थान' कहा गया है, जिसका सरल अर्थ है-आसन्न कारण: क्योंकि ही और अपत्राप्य के होने पर ही शील उत्पन्न होता है, ठहरता है। अर्थात् शील के उत्पाद में ये ही दो गुण आसन्न (समीपतम) कारण हैं। उनके न होने पर, न तो शील की उत्पत्ति ही हो सकती है, न स्थिति।
यों, इस शील के लक्षण, रस, प्रत्युपस्थान एवं पदस्थान समझने चाहिये।। (४) शील का माहात्म्य (आनृशंस्य) क्या है?- २०. इस प्रश्न का उत्तर है-'पश्चात्ताप न करना' आदि अनेक गुणों की प्राप्ति ही शील का माहात्म्य है।
त्रिपिटक में कहा भी है- "आनन्द, उत्तम शील (सदाचार) ही पश्चात्ताप से दूर रखने वाला है, अपश्चात्ताप ही उस उत्तम शील का माहात्म्य (वैशिष्ट्य) है।"
२१. त्रिपिटक में ही और भी कहा है-“गृहपतियो! शीलवान् की शीलसम्पत्ति के पाँच गुण