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________________ १.सीलनिदेस १३ (१) समाधानं वा, कायकम्मादीनं सुसील्यवसेन अविप्पकिण्णता ति अत्थो। (२) उपधारणं वा; कुसलानं धम्मानं पतिट्ठानवसेन आधारभावो ति अत्थो। एतदेव हेत्थ अत्थद्वयं सद्दलक्खणविदू अनुजानन्ति। अञ्जु पन-सिरठ्ठो सीलत्थो, सीतलट्ठो सीलत्थो ति एवमादिनापि नयेनेत्थं अत्थं वण्णयन्ति॥ (३) सीलस्स लक्खणादीनि १९. इदानि कानस्स लक्खण-रस-पच्चुपट्ठान-पदट्ठानानी ति? अत्थं सीलनं लक्खणं तस्स भिन्नस्सा पि अनेकधा। सनिदस्सनत्तं रूपस्स यथा भिन्नस्सनेकधा॥ यथा हि नीलपीतादिभेदेन अनेकधा भिन्नस्सापि रूपायतनस्स सनिदस्सनत्तं लक्खणं, नीलादिभेदेन भिन्नस्सापि सनिदस्सनभावानतिक्कमनतो; तथा सीलस्स चेतनादिभेदेन अनेकधा भिन्नस्सापि यदेतं कायकम्मादीनं समाधानवसेन कुसलानं धम्मानं पतिट्ठानवसेन वुत्तं सीलनं, तदेव लक्खणं; चेतनादिभेदेन भिन्नस्सापि समाधानपतिट्ठानभावानतिक्कमनतो। एवंलक्खणस्स पनस्स. दुस्सील्यविद्धंसनता अनवज्जगुणो तथा। (२) किस अर्थ में शील है?- १८. अवशिष्ट प्रश्नों के उत्तर में- शीलन के अर्थ में 'शील' है। यह 'शीलन' क्या है? (१) शीलन का अर्थ है 'समाधान' । अर्थात् काय-कर्मादि का संयमन या सुशीलता के फलस्वरूप कायिक कर्मों में असामअस्य का अभाव (=अविप्रकीर्णता)। अथवा (२) 'उपधारण'। अर्थात् कुशल धर्मों का आधार होने के फलस्वरूप आधारभाव (अधिष्ठान)। वैयाकरण (शब्दलक्षणविद्) 'शील' शब्द के यही दो अर्थ स्वीकार करते हैं। (३) अन्य आचार्य इस ‘शील' शब्द के ये अधोलिखित अर्थ भी करते हैं- (क) "शिर (प्रधान) के अर्थ में शील है', (ख) 'शीतल के अर्थ में शील है', (ग) “जिसके होने पर अकुशल धर्म सो जाँय', (घ) जिसके कारण सभी दुश्चरित विगतोत्साह होकर सो जाँय', या (ङ) “सभी धर्मों की प्रवेशार्हशाला होने के कारण शील है'- आदि।। (३) शील के लक्षणादि- १९. अब आचार्य इस शील के लक्षण, रस (कृत्य या सम्पत्ति), प्रत्युपस्थान एवं पदस्थान (प्रत्यय) क्या हैं?- यह बतायेंगे। लक्षण-जैसे, अनेक प्रकार से विभक्त किये जाने पर भी, रूप का लक्षण 'प्रत्यय का विषय होना' (सनिदर्शन) ही होता है; वैसे ही, अनेक प्रकार से विभक्त किये जाने पर भी, उस (शील) का लक्षण ‘शीलन' ही होगा। .." जैसे-नील, पीत आदि नाना प्रकार से विभक्त किये जाने पर भी 'रूप' का लक्षण 'सनिदर्शन' ही होता है; क्योंकि वह रूपायतन नीलादि भेद के अनुसार अनेकधा विभक्त होने पर भी अपने सनिदर्शन (दिखायी देना) स्वभाव का अतिक्रमण नहीं कर पाता; वैसे ही शील के चेतनादि भेद से नाना विभाग होने पर भी, शील का लक्षण पूर्वोक्त काय-कर्म आदि का समाधान रखना, अथवा कुशल धर्मों का आधार (प्रतिष्ठान) रूप ‘शीलन' ही कहलायगा। अतः वही उसका लक्षण है; क्योंकि वह शील चेतनादि भेद से विभक्त होकर भी अपने समाधान' या 'आधार' स्वभाव का अतिक्रमण नहीं कर पाता। रस- ऐसे लक्षण वाले इस शील का,
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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