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________________ विसुद्धिमग्ग चेतसिकं सीलं नाम "अभिज्झं पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विरहती" (दी० नि० १३६) ति आदिनी नयेन वुत्ता अनभिज्झाब्यापादसम्मादिट्ठिधम्मा। संवरो सीलं ति एत्थं पञ्चविधेन संवरो वेदितब्बो-१. पातिमोक्खसंवरो, २. सतिसंवरो, ३. बाणसंवरो, ४. खन्तिसंवरो, ५. वीरियसंवरो ति। तत्थ "इमिना पातिमोक्खसंवरेन उपेतो होति समुपेतो" (अभि० २-२६१) ति अयं पातिमोक्खसंवरो।"रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपजती" ति (दी० १-६२) अयं सतिसंवरो। 'यानि सोतानि लोकस्मि (अजिता ति भगवा), सति तैसं निवारणं।। सोतानं संवरं ब्रूमि, पञ्जायेते पिधिय्यरे'॥ (खु० १-४२४) ति। अयं आणसंवरो। पच्चयपटिसेवनं पि एत्थेव समोधानं गच्छति । यो पनायं "खमो होति सीतस्स उण्हस्सा" ति (म०नि०१-१५) आदिना नयेन आगतो, अयं खन्तिसंवरो नाम।"यो चायं उप्पन्नं कामवितकं नाधिवासेती" (म०नि०१-१६) ति आदिना नयेन आगतो, अयं विरियसंवरो नाम । आजीवपारिसुद्धि पि एत्थेव समोधानं गच्छति। इति अयं पञ्चविधो पि संवरो, या च पापभीरुकानं कुलपुत्तानं सम्पत्तवत्थुतो विरति, सब्बं पेतं संवरसीलं ति वेदितब्बं। अवीतिक्कमो सीलं ति समादिनसीलस्स कायिकवाचसिको अनतिकम्मो। इदं ताव "किं सीलं"ति पञ्हस्स विस्सज्जनं ॥ (२)केनटेन सीलं १८. अवसेसेसु केनटेन सीलं ति? सीलनठून सीलं। किमिदं सीलनं नाम? कर्मपथों की चेतना, उनके करने का विचार भी 'चेतनाशील' है। "लोभ (अभिध्या) को त्याग कर लोभरहित चित्त से साधना करता है" आदि प्रकार से कथित लोभराहित्य (अनभिध्या), अहिंसा (अव्यापाद) एवं सम्यग्दृष्टि आदि धर्म 'चैतसिक शील' कहलाते हैं। (ग) संवरशील- संवर (संयम) पाँच प्रकार का होता है। जैसे-१. प्रातिमोक्षसंवर, २. स्मृतिसंवर, ३. ज्ञानसंवर, ४. क्षान्तिसंवर एवं ५. वीर्यसंवर । इनमें "इस प्रातिमोक्ष संवर से युक्त, संयुक्त होता है। यह ‘प्रातिमोक्ष संवर से युक्त, संयुक्त होना ही'- 'प्रातिमोक्षसंवर' है।"चक्षुरिन्द्रिय की रक्षा करता है. चक्षुरिन्द्रिय में संवर करता है"- यह ‘स्मृतिसंवर' है। (भगवान् अजित से कह रहे हैं- "लोक में जितने भी तृष्णा, मिथ्यादृष्टि, अविद्या आदि स्रोत हैं, उनके निवारण का उपाय स्मृति है, अतः स्रोतों के संवर (पिदहन, ढकना) की भी देशना करता हूँ। प्रज्ञा उनको ढक देती है।" इस भगवान् की देशना में 'ज्ञानसंवर' का निरूपण है। 'प्रत्ययप्रतिसेवन संवर' भी इसी ज्ञानसंवर में संगृहीत हो जाता है। और जो संवर "शीत उष्ण को सहन करने में समर्थ होता है" आदि बुद्धवचन में वर्णित है वह 'शान्ति संवर' कहलाता है। और "उत्पन्न कामभोगसम्बन्धी वितर्कों के वश में नहीं होता" यह बुद्धवचन ‘वीर्यसंवर' का बोधक है। आजीविका की परिशुद्धि से सम्बद्ध संवर भी इसी वीर्यसंवर में अन्तर्निगूढ है। यों, यह पाँच प्रकार का संवरशील एवं पाप-भय से भीत कुलपुत्रों के सम्मुख उपस्थित पापमय वस्तुओं (बातों) से विरति को संवरशील के अन्तर्गत ही समझना चाहिये। (घ) 'अव्यतिक्रमशील' से तात्पर्य है- गृहीत शील का काया एवं वाणी द्वारा अनुल्लङ्घन। यह हुआ 'शील क्या है? - इस प्रथम प्रश्न का साङ्गोपाङ्ग उत्तर ।।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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