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१. सीलनिद्देस
सीलसरूपादिकथा
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१६. एवं अनेकगुणसङ्गाहकेन सील-समाधि-पञ्ञामुखेन देसितो पि पनेस विसुद्धि-मग्गो अतिसङ्क्षेपदेसितो येव होति । तस्मा नालं सब्बेसं उपकाराया ति वित्थारमस्स दस्सेतुं सीलं ताव आरब्भ इदं पञ्हाकम्मं होति
किं सीलं ? केनठ्ठेन सीलं ? कानस्स लक्खणरसपच्चुपठ्ठानपदट्ठानानि ? किमानिसंसं सीलं ? कतिविधं चेतं सीलं ? को चस्स सङ्किलेसो ? किं वोदानं ति ?
१७. तत्रिदं विस्सज्जनं
चेतना ।
(१) सीलसरूपं
किं सीलं ति ? पाणातिपातादीहि वा विरमन्तस्स वत्तपटिपत्तिं वा पूरेन्तस्स चेतनादमो धम्मा। वृत्तं तं पटिसम्भिदायं - " किं सीलं ति ? चेतना सीलं, चेतसिकं सीलं, संवरो सीलं, अवीतिक्कमो सीलं " ( खु०५-४९ ) ति ।
तत्थ चेतनासीलं नामं पाणातिपातादीहि वा विरमन्तस्स वत्तपटिपत्तिं वा पूरेन्तस्स
चेतसिकं सीलं पाणातिपातादीहि विरमन्तस्स विरति ।
अपि च चेतना सीलं नाम पाणातिपातादीनि पजहन्तस्स सत्त कम्मपथचेतन ।
८. तीन संक्लेशों का विशोधन, ९ स्रोत आपन्नत्व आदि अवस्थाओं का कारण-ये नौ (९) अथवा ऐसे ही अन्य तीन विवेक, तीन कुशलमूल तीन विमोक्षसुख, तीन इन्द्रियाँ आदि गुणत्रिक द्योतित होते हैं।। शील के स्वरूप आदि का वर्णन
१६. इस प्रकार यह चिशुद्धिमार्ग अनेक गुणों से युक्त शील, समाधि एवं प्रज्ञा के रूप में उपदिष्ट होने पर भी - अतिसंक्षेप में ही उपदिष्ट हुआ; अतः 'सब (साधकों) का उपकार करने के लिये पर्याप्त नहीं है'-ऐसा विचार कर इसका विस्तृत वर्णन करने के लिये सर्वप्रथम शील को ही लेकर ये प्रश्न उपस्थित होते हैं
(१) यह शील क्या है ? (२) यह किस अर्थ में शील है ? (३) इसके लक्षण, रस (कृत्य).. जानने का आकार (प्रत्युपस्थान) एवं आसन्नतम कारण (पदस्थान) क्या है? (४) इस शील के गुण (=आनृशंस्य, माहात्म्य) क्या हैं? (५) यह शील कितने प्रकार का है? (६) इसका संक्लेश (मल, विकार) क्या है? (७) और इसकी विशुद्धि (= व्यवदान) क्या है?
१७. इस (प्रश्नसमूह) का क्रमशः उत्तर यह है
(१) यह शील क्या है ? - जीवहिंसा आदि से विरत रहने वाले या उपाध्याय आदि की सेवा-शुश्रूषा (व्रत- प्रतिपत्ति) करने वाले के चेतना आदि धर्म 'शील' कहलाते हैं। यही बात पटिसम्भिदामग्ग में भी कही गयी है- "शील क्या है? चेतना शील है, चैतसिक शील है, संवर शील है, अव्यतिक्रम (अनुलचन) शील है। "
(क) वहाँ प्राणातिपात आदि से विरत रहने वाले या व्रत - प्रतिपत्ति (कर्त्तव्य) पूर्ण करने वाले की चेतना ही 'चेतनाशील' (चेतना के रूप में शील) है।
(ख) पुद्गल की उन उन प्राणातिपात आदि अकुशल धर्मों से विरति 'चैतसिक शील' (चैतसिक के रूप में शील) कहलाती है।
साथ ही प्राणातिपात आदि से विरत रहने का विचार करने वाले पुद्गल की सात कुशल