________________
१. सीलनिद्देस
९
३५) ति आदिवचनतो हि समाधि सासनस्स मज्झे, सो च कल्याणो, इद्धिविधादिगुणावहत्ता । पञ्ञाय सासनस्स परियोसानकल्याणता पकासिता होति । " सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धान सासनं" (खु० १-३५) ति हि वचनतो, पञ्जत्तरतो च पञ्ञा सासनस्स परियोसानं, सा च कल्याणं, इट्ठानिट्ठेसु तादिभावावहनतो ।
"सेलो यथा एकघनो वातेन न समीरति ।
"
एवं निन्दापसंसासु, न समिञ्जन्ति पण्डिता ॥(खु०१-२५ ) ति हि वुत्तं । ११. तथा सीलेन तेविज्जताय उपनिस्सयो पकासितो होति । सीलसम्पत्तिं हि निस्साय तिस्सो विज्जा पापुणाति, न ततो परं । समाधिना छळभिञ्ञताय उपनिस्सयो पकासितो होति । समाधिसम्पदं हि निस्साय छ अभिज्ञा पापुणाति, न ततो परं । पञ्ञाय पटिसम्भिदापभेदस्स उपनिस्सयो पकासितो होति । पञ्ञसम्पत्तिं हि निस्साय चतस्सो पटिसम्भिदा पापुणाति, न अञ्ञेन कारणेन ।
सीलेन च कामसुखल्लिकानुयोगसङ्घातस्स अन्तस्स वज्जनं पकासितं होति । समाधिना अत्तकिलमथानुयोगसङ्घातस्य । पञ्ञाय मज्झिमाय पटिपत्तिया सेवनं पकासितं होति । - १२. तथा सीलेन अपायसमतिक्कमनुपायो पकासितो होति, समाधिना कामधातुसमतिक्कमनुपायो, पञ्ञाय सब्बभवसमतिक्कमनुपायो ।
"कुशल पुण्यप्रद कर्मों का सञ्चय करना" आदि बुद्धवचनों के प्रमाण के बल पर 'समाधि' की इस • धर्म (बुद्धशासन) में मध्येकल्याणता सिद्ध होती है। वह ऋद्धिविध ( द्र० इसी ग्रन्थ का १२ वाँ परिच्छेद) आदि गुणों की उत्पादक होने के कारण कल्याणकर भी है।
इसी तरह. 'प्रज्ञा' से शासन की पर्यवसानकल्याणता (अन्त में कल्याणकरता) सिद्ध होती है। "चित्त को वश में करना-यही बुद्धों की देशना है" - इत्यादि वचनों से और क्योंकि प्रज्ञा की भावना ही इस बुद्धशासन की चरम सीमा है - इसलिये भी, और इस प्रज्ञा से इष्ट अनिष्ट के प्रति समत्व भाव उत्पन्न होने से भी यह प्रज्ञा कल्याणकारी है।
" जैसे शैल (प्रस्तरसमूह या पर्वत) वायु से हिलाया डुलाया नहीं जा सकता, वैसे ही बुद्धिमान् पण्डितजन भी लोक में हो रही अपनी निन्दा - प्रशंसा के कारण विचलित नहीं होते" - ( ध० प० १ - २५ ) ऐसा कहा गया है।
उपनिश्रय- - ११ (क) और शील को तीनों विद्याओं का उपनिश्रय (बलवान् या प्रधान कारण बताया गया है । (भिक्षु) शील-सम्पत्ति का सहारा लेकर तीनों विद्याएँ प्राप्त कर सकता है, इससे आगे नहीं । (ख) समाधि को छह अभिज्ञाओं की प्राप्ति का उपनिश्रय (प्रधान कारण) बतलाया गया है । भिक्षु समाधि सम्पत्ति का सहारा लेकर छह अभिज्ञाएँ पा सकता है, इससे आगे नहीं । (ग). और प्रज्ञा को चारों प्रतिसंविदाओं का प्रधान (= उपनिश्रय) बताया गया है। (भिक्षु प्रज्ञा - सम्पत्ति का आश्रय लेकर ही चार प्रतिसंवेदनाएँ पा सकता है, अन्य किसी हेतु (कारण) के आलम्बन से नहीं । अन्तद्वयवर्जन- 'शील' से कामसुखों में आनन्द लेने की प्रवृत्ति (कामसुखल्लिकानुयोग ) की तरफ वाले पहले अन्त (कोटि) का परिवर्जन (प्रतिनिषेध) या त्याग दयोजित किया गया है और 'समाधि' से स्वयं को पीड़ित करते रहने की प्रवृत्ति (अत्तकिलमथानुयोग आत्मक्लमथानुयोग ) की तरफ वाले दूसरे अन्त का ।
'प्रज्ञा' से मध्यमा प्रतिपदा (बुद्धानुमोदित मध्यम मार्ग) का ग्रहण प्रदर्शित किया है। अपाय-त्यागोपाय - १२ तथा शील द्वारा अपाय (हीन योनि = १, नरक, २. प्रेत्य विषय,
5