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विसुद्धिमग्ग ८. तत्रायं याय पञाय सपञो ति वुत्तो, तत्रास्स करणीयं नत्थि। पुरिमकम्मानुभावेनेव हिस्स सा सिद्धा।आतापी निपको ति। एत्थं वुत्तविरियवसेन पन तेन सातच्चकारिना पावसेन च सम्पजानकारिना हुत्वा सीले पतिट्ठाय चित्तपञावसेन वुत्ता समथविपस्सना भावेतब्बा ति इममत्र भगवा सीलसमाधिपामुखेन विसुद्धिमग्गं दस्सेति।।
९. एत्तावता हि तिस्सो सिक्खा, तिविधकल्याणं सासनं, तेविज्जतादीनं उपनिस्सयो, अन्तद्वयवज्जनमज्झिमपटिपत्तिसेवनानि,अपायादिसमतिक्कमनुपायो, तीहाकारेहि किलेसप्पहानं, वीतिकमादीनं पटिपक्खो, सङ्किलेसत्तयविसोधनं, सोतापन्नादिभावस्स च कारणं पकासितं होति।
१०. कथं? एत्थं हि सीलेन अधिसीलसिक्खा पकासिता होति, समाधिना अधिचित्तसिक्खा, पञाय अधिपज्ञासिक्खा।
सीलेन च सासनस्स आदिकल्याणता पकासिता होति। "को चादि कुसलानं धम्मानं सीलं च सुविसुद्ध" (सं०४-१२३) ति हि वचनतो, "सब्बपापस्स अकरणं" (खु०१-३५) ति आदिवचनतो च सीलं सासनस्स आदि, तं च कल्याणं, अविप्पटिसारादिगुणावहत्ता।
समाधिना मज्झेकल्याणता पकासिता होति। "कुसलस्स उपसम्पदा" (खु०१
८. यहाँ इस गाथा में जिस प्रज्ञा द्वारा योगावचर को 'सपञो' कहा है, वहाँ योगावचर भिक्षु को, उक्त प्रज्ञा-प्रातिनिमित कोई पृथक् प्रयत्न नहीं करना पड़ता; क्योंकि वह कर्मज प्रज्ञा तो उसे पूर्वकृत कमों के प्रभाव से जन्मतः ही प्राप्त रहती है। (जिसे हम लोकव्यवहार में 'प्रतिभा' कहते हैं।) आतापी निपको।(इन शब्दों का भाव यह है कि) इस गाथा में उक्त आताप और वीर्य के बल से सतत परिश्रमी बने रहकर प्रज्ञा के बल से निरन्तर सावधान (सम्प्रज्ञानयक्त) बने रहकर.शील में प्रतिष्ठित हो, 'चित्त' एवं 'प्रज्ञा' के नाम से वर्णित शमथ एवं विपश्यना की भावना करनी चाहिये। यों, यहाँ इस गाथा में भगवान् ने शील-समाधि-प्रज्ञा के माध्यम से ही विशुद्धिमार्ग-प्राप्ति का संकेत किया है।।
९. इतने व्याख्यान से-१.तीन शिक्षा (शील-समाधि-प्रज्ञा), २.त्रिविध कल्याणकर धर्म (बुद्ध-शासन), ३. त्रैविद्य आदि का प्रमुख कारण (=उपनिश्रय), ४. दोनों अन्तों (किनारों, कोटियों) का त्याग एवं मध्यमा प्रतिपदा (मार्ग) का अनुपालन, ५. अपाय आदि के अतिक्रमण को रोकने का उपाय,६.तीन प्रकार से क्लेशों का प्रहाण,७.शिक्षापदों के उलान आदि का प्रतिपक्ष (विरोध),८. तीन संक्लेशों का विशोधन एवं ९. स्रोतआपन आदि (मार्ग-फल) की प्राप्ति का साधन प्रकाशित होता है।
१०. वह कैसे?
तीन शिक्षाएँ- यहाँ 'शील' शब्द से शील पर आधृत (अधिशील) शिक्षा, 'समाधि' शब्द से चित्त पर आधृत (अधिचित्त) शिक्षा, एवं 'प्रज्ञा शब्द से प्रज्ञा पर आधृत (अधिप्रज्ञ) शिक्षा का तात्पर्य समझना चाहिये।
त्रिविध युद्धानुशासन-'शील' से बुद्धशासन की आदिकल्याणता (कुशल धर्मा का प्रारम्भ में कल्याणकर होना) प्रदर्शित होती है। "कुशल धर्मा का आरम्भ क्या है? सुविशुद्ध शील ही इनका आरम्भ है", "सभी पापों का न करना" आदि वचनों से शील बुद्धशासन का 'आदि है और वह भी स्वकृत कर्मों का स्मरण कर उनके प्रति पश्चात्ताप न होना आदि गुणों का उत्पादक होने से 'कल्याणकर' है। .
'समाधि' से इस शासन की ‘मध्येकल्याणता' (मध्य में कल्याणकरता) घोतित होती है।