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१. सीलनिदेस इमस्मि हि पहाब्याकरणे तिक्खत्तुं पञ्जा आगता। तत्थ पठमा जातिपञा, दुतिया विपस्सनापञ्जा, ततियां सब्बकिच्चपरिणायिका पारिहारिकपा।
संसारे भयं इक्खती ति भिक्खु।सो इमं विजटये जटं ति। सो इमिना च सीलेन, इमिना च चित्तसीसेन निद्दिटुसमाधिना, इमाय च तिविधाय पाय, इमिना च आतापेना ति छहि धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु । सेय्यथापि नाम पुरिसो पथवियं पतिट्ठाय सुनिसितं सत्थं उक्खिपित्वा महन्तं वेळुगुम्बं विजटेय्य; एवमेव सील पथवियं पतिट्ठाय समाधिसिलायं सुनिसितं विपस्सनापञ्जासत्थं विरियबलपग्गहितेन पारिहारिकपञाहत्थेन उक्खिपित्वा सब्बं पितं अत्तनो सन्ताने पतितं तण्हाजटं विजटेय्य-सञ्छिन्देय्य, सम्पदालेय्य । मग्गक्खणे पनेस तं जटं विजटेति नाम । फलक्खणे विजटितजटो सदेवकस्स लोकस्स अग्गदक्खिणेय्यो
होति।
- तेनाह भगवा
"सीले पतिट्ठाय नरो सपो , चित्तं पलं च भावयं।
आतापी निपको भिक्खु, सो इमं विजटये जटं"॥ ति। एवं प्रज्ञा (विपश्यना) की भावना (साधना) करता हुआ। आतापी वीर्यवान् । वीर्य-क्लेशों को तपाना, झुलसाना, अर्थात् आताप । वह आताप जिसको भी हो वह हुआ आतापी। निपको 'नेपक्क' कहते हैं प्रज्ञा को। यहाँ इस 'नेपक्क' पद से पारिहारिक प्रज्ञा का (ऐसी प्रज्ञा जिसके द्वारा स्व-परहिताहितचिन्तन में कौशल प्राप्त किया जा सके) ग्रहण है। उस नेपक्क से सम्पन्न योगावचर को 'निपक' कहते
इस गाथा में प्रज्ञा' शब्द तीन बार आया है। बुद्धसम्मत त्रिविध प्रज्ञाओं में से कर्मज एवं त्रिहेतुक प्रतिसन्धिज प्रज्ञा का ग्रहण पीछे ‘सपञो' पद से किया जा चुका, इस 'निपक' शब्द से पारिहारिक (कर्मस्थान को परिपूर्ण करने में लगी) प्रज्ञा का ग्रहण है। इस बात को और अधिक स्पष्टतया समझने के लिये यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस प्रश्न की व्याकरण(व्याख्यान)भूत गाथा में 'प्रज्ञा' शब्द का प्रयोग तीन बार हुआ है, उनमें पहली कर्मज प्रज्ञा 'जाति प्रज्ञा' (प्रारब्धवश जन्मजात) कहलाती है, दूसरी 'विपश्यना-प्रज्ञा' कहलाती है, (इसे पीछे 'त्रिहेतुकप्रतिसन्धि प्रज्ञा' भी कहा गया है) और तीसरी ‘पारिहारिक (उठने, बैठने आदि सब कर्मों को सम्भव बनाने वाली) प्रज्ञा' कहलाती है।
संसार में भय देखने वाले को भिक्खु कहते हैं। सो इमं विजटये जटं। वह (भिक्षु) इस उपर्युक्त १. शील, २. चित्त द्वारा निर्दिष्ट समाधि एवं उपर्युक्त त्रिविध ३-४-५ प्रज्ञाओं एवं ६. वीर्य (उद्योग)-इन छह धर्मों से युक्त होकर-जिस प्रकार कोई पुरुष पृथ्वी पर खड़ा होकर तेज धार वाला (निशित, तीक्ष्ण) शस्त्र हाथ में लेकर बांसों के विशाल झुरमुट (=वेणुगुल्म, बँसवारी) को काट डाले; उसी प्रकार भिक्षु शीलरूपी पृथ्वी पर खड़ा हो, समाधिरूपी शिला (पत्थर) पर घिसकर तीखे किये गये विपश्यना एवं प्रज्ञा शस्त्र को वीर्य रूपी बल से पकड़े हुए, पारिहारिक प्रज्ञा रूपी हाथ से उठाकर अपनी मनःसन्तति के प्रवाह में विद्यमान समग्र तृष्णाजाल को विशृङ्खलित, छिन्न भिन्न (टुकड़ेटुकड़े) एवं नष्ट कर दे। वह भिक्षु मार्ग-क्षण में इस जटा को काटता है और फल-क्षण में, उक्त तृष्णाजाल से मुक्त होने के कारण, देवलोकसहित समग्र लोकों में सर्वप्रथम लाभ सत्कार श्लोक (यश) एवं दान पाने योग्य हो जाता है।
इसी अभिप्राय से भगवान ने कहा है- 'सीले पतिद्वाय...विजटये जटं'।