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विसुद्धिमग्ग
कत्थचि कम्मादिवसेन । यथाह
"कम्मं विज्जा च धम्मो च, सीलं जीवितमुत्तमं ।
एतेन मच्चा सुज्झन्ति, न गोत्तेन धनेन वा" (म० नि० ३ - ३५० ) ति ॥ कत्थचि सीलादिवसेन । यथाह
“सब्बदा सीलसम्पन्नो, पञ्ञवा सुसमाहितो ।
आरद्धविरियो पहितत्तो, ओघं तरति दुत्तरं " (सं० नि० १-५१ ) ति ॥ कत्थचि सतिपट्ठानादिवसेन । यथाह
" एकायनो अयं, भिक्खवे, मग्गो सत्तानं विसुद्धियां पे० निब्बानस्स सच्छिकिरियाय, यदिदं चत्तारो सतिपट्ठाना" ( दी० नि० २-२१७) ति ।
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सम्मप्पधानादीसु पि एसेव नयो। इमस्मि पन पञ्हाव्याकरणे सीलादिवसेन देसितो । ७. तत्रायं सङ्क्षेपवण्णना- सीले पतिट्ठाया ति सीले ठत्वा । परिपूरयमानोयेव चेत्थ सीले ठितो ति वुच्चति, तस्मा सीलपरिपूरणेन सीले पतिट्ठहित्वा ति अयमेत्थं अत्थो । नरो ति सत्तो । सपञ्जति । कम्मजतिहेतुकपटिसन्धिपञ्ञाय पञ्ञवा । चित्तं पञ्ञ च भावयं ति । समाधिं चेव विपस्सनं च भावयमानो । चित्तसीसेन हेत्थं समाधि निद्दिट्ठो, पञ्ञानामेन च विपस्सना ति | आतापी ति । विरियवा । विरियं हि किलेसानं आतापनपरितापनद्वेन आतापो ति वुच्चति, तदस्स अत्थी ति आतापी । निपको ति नेपक्कं वुच्चति पञ्ञा, ताय समन्नागतो ति अत्थो । इमिना पदेन पारिहारिकप दस्सेति ।
"जो पुद्गल पादक ध्यान करके प्रज्ञा (विपश्यना ) में औत्सुक्य लाता है, वह निर्वाण के (अत्यन्त ) निकट पहुँच जाता है ।। "
(ग) कहीं कहीं यह (विसुद्धिमग्ग) शब्द कर्म आदि के लिये भी प्रयुक्त हुआ है; जैसे"कर्म, विद्या, धर्म, शील एवं उत्तम आजीविका-इन की शुद्धि पर ही मानव के चित्त की शुद्धि निर्भर है: अधिक धन या उच्च गोत्र पर नहीं ।"
(घ) कहीं कहीं शील आदि द्वारा इस विशुद्धि का मार्ग अभिप्रेत है। जैसे
'सर्वदा शील से युक्त, प्रज्ञावान्, एकाग्रचित्त, उत्साही एवं संयमी पुरुष ही ओघ (बाढ़, प्रवाह) को पार कर पाता है ।"
है ।
(ङ) कहीं स्मृतिप्रस्थान आदि को ही विशुद्धि का मार्ग बताया गया है; जैसे
" भिक्षुओ! प्राणियों की चित्तविशुद्धि का एकमात्र यही मार्ग है.... निर्वाण - साक्षात्कार हेतु यही एकमात्र मार्ग है कि कोई इन चारों स्मृतिप्रस्थानों की भावना करे।"
(च) इसी प्रकार कहीं कहीं 'सम्यक्प्रयत्न' आदि के लिये भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। परन्तु यहाँ इस प्रकरण-ग्रन्थ में शील आदि द्वारा ही विशुद्धि के मार्ग की देशना की गयी
गाथा के शब्दों का अर्थ- ७. उक्त 'सीले पतिद्वाय' गाथा में आये शब्दों का संक्षिप्त (नातिविस्तृत) वर्णन (व्याख्यान) इस प्रकार है- सीले पतिद्वाय शील (सदाचार) में स्थित होकर । शील का सम्यक्प्रकार से पालन करने वाला योगावचर ही यहाँ 'शील में स्थित' कहा गया है। इसलिये यहाँ 'शील की परिपूर्णता द्वारा शील में प्रतिष्ठित होकर' - यह अर्थ हुआ । नरो का अर्थ हैसत्त्व (प्राणी)। सपञ्ञ का अर्थ है - कर्मज (प्रारब्ध कर्मानुभाव से प्राप्त) एवं त्रिहेतुक (अलोभ, अद्वेष, अमोहयुक्त प्रतिसन्धि (मातृगर्भ) की प्रज्ञा से सम्पन्न । चित्तं पञ्ञ च भावयं का अर्थ है समाधि (चित्त)