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१. सीलनिद्देस
सीलादिसङ्गहं खेमं, उजुं मग्गं विसुद्धिया ॥ यथाभूतं अजानन्ता, सुद्धिकामा पि ये इध । विसुद्धिं नाधिगच्छन्ति, वायमन्ता पि योगिनो ॥ तेसं पामोज्जकरणं, सुविसुद्धविनिच्छयं । देसनानयनिस्सितं ॥
महाविहारवासीनं, विसुद्धिमग्गं भासिस्सं, तं मे सक्कच्च भासतो । विसुद्धिकामा सब्बे पि, निसामयथ साधवो ति ॥
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५. तत्थ विसुद्धी ति सब्बमलविरहितं अच्चन्तपरिसुद्धं निब्बानं वेदितब्बं । तस्सा विसुद्धिया मग्गो ति विसुद्धिमग्गो । मग्गो ति अधिगमूपायो वुच्चति । तं विसुद्धिमग्गं भासिस्सामी ति अत्थो ।
६. सो पनायं विसुद्धिमग्गो कत्थचि विपस्सनामत्तवसेनेव देसितो। यथाह"सब्बे सङ्घारा अनिच्चा ति, यदा पञ्ञाय पस्सति ।
अथ निब्बन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया ||" ( खु०१-४३ ) ति ॥ कत्थचि झान्पञ्ञवसेन । यथाह
" यम्हि झानं च पञ्ञ च, स वे निब्बानसन्तिके " ( खु०१-५२) ति ।
(क्योंकि) भगवान् बुद्ध ( = जिन ) द्वारा अनुशिष्ट (उपदिष्ट) धर्म में साधारण मानवों के लिये अत्यन्त दुर्लभ प्रव्रज्या (= भिक्षुभाव) ग्रहण करके भी कल्याणकारी (क्षेमङ्कर) शील आदि (१ शील, २ . समाधि एवं ३. प्रज्ञा- इस स्कन्धत्रय) का स्वचित्त में संग्रह (धारण) करना ही चित्त को विशुद्ध. निर्विकार, निर्मल या निर्वाण एवं अर्हत्त्व प्राप्त करने के लिये सरल (ऋजु) मार्ग (उपाय) है।
यहाँ लोक में यह देखा जाता है कि समग्र सांसारिक क्लेशों व उक्त तृष्णाजाल से विमुक्तिहेतु चित्तविशुद्धि चाहने वाला कोई कोई योगावचर भिक्षु, प्रयास करने पर भी, उक्त शील आदि के विषय में यथातथ (वास्तविक) ज्ञान न होने के कारण, स्वचित्तविशुद्धि, जो कि निर्वाणप्राप्ति का प्रमुख साधन है, नहीं कर पाते ।।
उन वैसे योगावचर भिक्षुओं के प्रमोद (अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति से होने वाले हर्ष) के लिये मैं चित्तविशुद्धि के उपायभूत एवं (श्रीलङ्कास्थित) महाविहार में साधनारत स्थविर भिक्षुओं द्वारा उपदिष्ट विधि से कथित यह 'विसुद्धिमग्ग' (ग्रन्थ) कहूँगा। मेरे द्वारा कथित इस ग्रन्थ को वे सभी योगमार्गारूढ़ साधु (भिक्षु) जन श्रद्धा एवं सम्मान पूर्वक सुनें ।।
विसुद्धिमार्ग का अर्थ ५ यहाँ, इस विसुद्धिमग्ग' ग्रन्थ के नाम में विसुद्धि शब्द सभी प्रकार के मलों (चित्तविकारों) से रहित अतएव अत्यन्त परिशुद्ध निर्वाण के अर्थ में जानना चाहिये । उस विशुद्धि का मार्ग प्राप्ति का उपाय ही इस ग्रन्थ में वर्णित है, अतः इसे भी विशुद्धिमार्ग (विसुद्धिमग्ग) कहा गया है। मैं उस 'विसुद्धिमग्ग' को निरूपण (रचना) करूँगा - यह इस गाथा का संक्षिप्त अर्थ हुआ।
६. वह यह विसुद्धिमग्ग (शब्द) बुद्धवचनों में
(क) कहीं केवल 'विपश्यना' (प्रज्ञा) मात्र अर्थ में प्रयुक्त हुआ है; जैसे
‘‘सभी संस्कार अनित्य हैं—यह बात जब प्रज्ञा द्वारा (भिक्षु) समझ लेता है, तब उसे दुःख (दुःखभूत संस्कारों) में निर्वेद (ग्लानि, वैराग्य) होने लगता है-यही चित्त-विशुद्धि का उपाय है।" (ख) कहीं यह शब्द 'ध्यान' व 'प्रज्ञा' दोनों अर्थों में कहा गया है: जैसे
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