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________________ विसुद्धिमग्ग साखाजालसङ्घाता जटा विया ति जटा। सा पनेसा सकपरिक्खारपरपरिक्खारेसु सकअत्तभावपरअत्तभावेसु अज्झत्तिकायतन-बाहिरायतनेसु च उपज्जनतो अन्तो जटा बहि जटा ति वुच्चति। ताय एव उप्पजमानाय जटाय जटिता पजा। यथा नाम वेळुगुम्बजटादीहि वेळुआदयो, एवं ताय तण्हाजटाय सब्बा पि अयं सत्तनिकायसङ्खाता पजा जटिता=विनद्धा, संसिब्बिता ति अत्थो। यस्मा च एवं जटिता। तं तं गोतम पुच्छामी ती तस्मा तं पुच्छामि। 'गोतमा' ति भगवन्तं गोत्तेन आलपति। को इमं विजटये जटं ति। इमं एवं तेधातुकं जटेत्वा ठितं जटं को विजटेय्य, विजटेतुं को समत्थो? ति पुच्छति। ३. एवम्पुट्ठो पनस्स सब्बधम्मेसु अप्पटिहताणचारो देवदेवो, सक्कानं अतिसक्को, ब्रह्मानं अतिब्रह्मा, चतुवेसारज्जविसारदो दसबलधरो अनावरणाणो समन्तचक्खु भगवा तमत्थं विस्सजेन्तो "सीले पतिट्ठाय नरो सपञ्जो चित्तं पञ्चं च भावयं। आतापी निपको भिक्खु सो इमं विजटये जटं"॥ (सं०१-१४) ति इमं गाथमाह। इमिस्सा दानि गाथाय, कथिताय महेसिना। वण्णयन्तो यथाभूतं, अत्थं सीलादिभेदनं ॥ सुदुलभं लभित्वान, पब्बजं जिनसासने। नीचे-ऊपर होती हुई बार बार उत्पन्न होने से, वस्त्र आदि के कई भागों को जोड़ने वाली सिलाई (संसीवन) की तरह, या वेणु-(बाँस) समूह की एक दूसरे से लिपटी शाखाओं के जाल की तरह होती है। अतः इसे 'जालिनी' कहा गया है। फिर इस तृष्णा के स्व और पर की आवश्यकता पूर्ति हेतु स्वयं अपने या दूसरों के शरीर के लिये आन्तरिक चक्षु आदि एवं बाह्य रूप आदि छह छह आयतनों में उत्पन्न होने से अन्तो जटा बहि जटा कहा गया है। फिर उसी उत्पन्न होती हुई तृष्णा के अभिप्राय से जटाय जटिता पजा कहा गया है। जैसे वेणुगुल्म (बाँस की झाड़ियों) के परस्पर गुंथे होने से वे वेणु आदि परस्पर गुंथे रहते हैं, उसी तरह यह समग्र प्रजा (सत्त्व, प्राणी) उस तृष्णा से सर्वथा गूंथ दी गयी है, सिल दी गयी है, जुड़ी हुई सी दिखायी देती है; क्योंकि यह समग्र प्राणिसमूह उस तृष्णा से जकड़ा हुआ है, इसीलिये, अपने मन में यह अभिप्राय लेकर, भो गोतम! मैं आपसे जानना चाहता हूँतं तं गोतम पुच्छामि। यहाँ वह देवपुत्र भगवान् को उनके 'गोतम'-इस गोत्र-नाम से सम्बोधन कर रहा है। को इमं विजटये जटं। 'तीनों (१. काम, २. रूप एवं ३. अरूप) धातुओं (कायों) को जकड़े हुई इस तृष्णा को कौन छिन्न-भिन्न करे? उसे विशृङ्खलित करने में कौन समर्थ हो?-वह देवपुत्र भगवान् से यह जिज्ञासा कर रहा है। ३. देवपुत्र द्वारा यों जिज्ञासा प्रकट किये जाने पर, समग्र धर्मों में अप्रतिहत (निर्बाध) ज्ञान का आश्रय लेने वाले, श्रेष्ठ इन्द्र (देवराज), सर्वोत्तम ब्रह्मा, चार वैशारद्यों की साधना में निपुण, दश बलों के धारक, अनावृत ज्ञान (अनावरणज्ञान एवं सर्वज्ञताज्ञान) से सम्पन्न, चारों ओर सावधान दृष्टि रखने वाले भगवान् बुद्ध ने उस (देवपुत्र) की जिज्ञासा शान्त करने के लिये- . ‘सीले पतिट्ठाय.......सो इमं विजटये जटं' यह गाथा कही है। ४. अब मैं (बुद्धघोष) महर्षि (भगवान् बुद्ध) द्वारा कही गयी इस गाथा (पद्य) का विस्तृत व्याख्यान करते हुए (इस गाथा में आये) 'शील' आदि शब्दों का विशेष एवं वास्तविक (=यथाभूत, सत्य) अर्थ बतलाऊँगा।। .
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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