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________________ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स . विसुद्धिमग्गे सीलनिद्देसो पठमो परिच्छेदो निदानादिकथा १. "सीले पतिट्ठाय नरो सपञो, चित्तं पलं च भावयं। . आतापी निपको भिक्खु, सो इमं विजटये जटं"॥ (सं०१-१४) इति हीदं वुत्तं । कस्मा पनेतं वुत्तं? भगवन्तं किर सावत्थियं विहरन्तं रत्तिभागे अञ्जतरो देवपुत्तो उपसङ्कमित्वा अत्तनो संसयसमुग्घातत्थं "अन्तो जटा बहि जटा जटाय जटिता पजा। __ तं तं, गोतम पुच्छामि, को इमं विजटये जटं"॥ (सं० १-१४) ति॥ इमं पहं पुच्छि । २. तस्सायं संक्षेपत्थो-जटा ति। तण्हाय जालिनिया एतं अधिवचनं। सा हि रूपादीसु आरम्मणेसु हेटूपरियवसेन पुनप्पुनं उप्पज्जनतो संसिब्बनटेन वेळुगुम्बादीनं उन भगवान् अर्हत् सम्यक्सम्बुद्ध को प्रणाम में विशुद्धिमार्ग शीलनिर्देश (प्रथम परिच्छेद) ग्रन्थ-रचना का कारण व प्रयोजन १. "जो बुद्धिमान् (विवेकी) पुरुष शील (सदाचार) को आधार बनाकर समाधि (=चित्तनिरोध) । एवं प्रज्ञा (=विपश्यना) की भावना करता हुआ निरन्तर उद्योगरत एवं क्रियाशील रहता है. स्वहिताहितचिन्तन में कुशल (=निपक) है एवं भिक्षुभाव (प्रवज्या) ग्रहण कर चुका है, वही इस जटा (भवतृष्णाजाल) को छिन्न भिन्न कर सकता है।" (भगवान् ने) ऐसा कहा है, परन्तु यह (कहाँ, किस प्रसङ्ग में) किस कारण (प्रयोजन) कहा है? रात्रि के मध्य प्रहर में किसी देवपुत्र (देवता) ने, श्रावस्ती में साधनाहेतु विराजमान भगवान् बुद्ध के पास आकर, अपने संशय (=विमति, सन्देह) के समुद्धात (निराकरण) हेतु यह प्रश्न किया "अन्दर भी जटा (जआल) है, बाहर भी जटा है, यों यह समग्र प्रजा (प्राणिसमूह) जटाओं (जआलों) से जकड़ी हुई है। भो गोतम! (मैं) आपसे इस विषय में यह पूछना (जानना) जाहता हूँ कि कौन इस जटा को विशृङ्खलित (छिन्न-भिन्न) करने में समर्थ है?" ६. २: उस प्रश्न का संक्षिप्त अर्थ यह है-यहाँ, इस गाथा में, जटा शब्द का प्रयोग (१०८ भेदसमूह होने से) जाल (समूह) वाली तृष्णा' के लिये किया गया है । वह तृष्णा रूप आदि आलम्बनों में
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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