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________________ ४८ विसुद्धिमग्ग कि आकाश का जल भूमि पर प्राप्त हो, उसे शुद्ध वस्त्र में ग्रहण कर किसी पात्र में रखना चाहिये। इस जल का या किसी दूसरे शुद्ध जल का व्यवहार करना चाहिये। जल से भरे पात्र को (विदत्थिचतुरङ्गल-वर्तुल) विहार के प्रत्यन्त में किसी ढके स्थान में रखना चाहिये। भावना करते हुए वर्ण और लक्षण की प्रत्यवेक्षा नहीं करनी चाहिये। भावना करते करते क्रमशः पूर्वोक्त प्रकार से निमित्तद्वय की उत्पत्ति होती है, पर इसका उद्ग्रहनिमित्त चलित प्रतीत होता है। यदि जल में फेन और बुदबुदे उठते हों तो कसिण-दोष प्रकट हो जाता है। प्रतिभागनिमित्त स्थिर है। उक्तरीत्या साधक आपो-कसिण का आलम्बन कर ध्यानों का उत्पाद करता है। तेजोकसिण-तेजोकसिण की भावना करने की इच्छा रखने वाले साधक को अग्नि में निमित्त का ग्रहण करना चाहिये। जो अधिकारी है वह अकृत अग्नि-जैसे दावाग्नि-में भी निमित्त का उत्पाद कर सकता है, पर जो अधिकारी नहीं है उसे सूखी लकड़ी लेकर आग जलानी पड़ती है। चटाई, चमड़े या कपड़े के टुकड़े में एक बालिश्त चार अङ्गल का छेद कर उसे अपने सामने रख लेना चाहिये, जिसमें नीचे का तृण-काष्ठ और ऊपर की धूमशिखा न दिखायी देकर केवल मध्यवर्ती अग्नि की सघन ज्वाला ही दिखायी दे। इसी सघन ज्वाला में निमित्त का ग्रहण करना चाहिये। नील, पीत आदि वर्ण तथा उष्णता आदि लक्षण की प्रत्यवेक्षा नहीं करनी चाहिये। केवल प्रज्ञप्तिमात्र में चित्त को प्रतिष्ठित कर भावना करनी चाहिये। उक्त प्रकार से भावना करने पर क्रमपूर्वक दोनों निमित्त उत्पन्न होते हैं । उद्ग्रह-निमित्त में अग्निज्वाला खण्ड-खण्ड होकर गिरती हुई ज्ञात होती है। प्रतिभागनिमित्त निश्चल होता है। उक्तरीत्या साधक उपचार-ध्यान का लाभी हो, क्रमपूर्वक ध्यानों का उत्पाद करता है। वायोकसिण-साधक को वायु में निमित्त का ग्रहण करना होता है। दृष्टि द्वारा इस निमित्त का ग्रहण होता है। घने पत्तों सहित गन्ना, बाँस या किसी दूसरे वृक्ष के अग्रभाग को वायु से सञ्चालित होते देखकर चलनाकार से निमित्त का ग्रहण कर प्रहारक वायुसङ्घात में स्मृति की प्रतिष्ठा करनी चाहिये या शरीर के किसी प्रदेश में वायु का स्पर्श अनुभव कर सङ्घटनाकार में निमित्त का ग्रहण कर वायुसङ्घात में स्मृति की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। उद्ग्रहनिमित्त चल और प्रतिभाग-निमित्त निश्चल और स्थिर होता है। ध्यानोत्पाद की प्रणाली पृथ्वीकसिण की तरह है। नीलकसिण-जो अधिकारी है उसे नील पुष्प-संस्तर, नील वस्त्र या नीलमणि देखकर निमित्त का उत्पाद होता है। पर जो अधिकारी नहीं है उसे नीले रङ्ग के फूल लेकर उन्हे टोकरी में फैला देना चाहिये और ऊपर तक फूल की पत्तियों को इस तरह भर देना चाहिये जिसमें केसर या वृन्त न दिखलायी पड़े या टोकरी को नीले कपड़े से इस तरह बाँधना चाहिये जिसमें वह नीलमण्डल की तरह ज्ञात हो, या नील वर्ण के किसी धातु को लेकर चल-मण्डल बनावे या दीवाल पर उसी धातु से कसिणमण्डल बनावे और उसे किसी असदृश वर्ण से परिच्छिन्न कर दे। फिर उस पर भावना करे। शेष-क्रिया पृथ्वी-कसिण के समान है। पीतकसिण-पीतवर्ण के पुष्प, वस्त्र या धातु में निमित्त का ग्रहण करना पड़ता है। लोहितकसिण-रक्तवर्ण के पुष्प, वस्त्र या धातु में नीलकसिण की तरह,भावना करनी होती है। अवदातकसिण-अवदात पुष्प, वस्त्र या धातु में नीलकसिण की तरह भावना करनी होती है। आलोककसिण-जो अधिकारी है वह प्राकृतिक आलोक-मण्डल में निमित्त का ग्रहण करता है। सूर्य या चन्द्र का जो आलोक खिड़की या छेद के मार्ग से प्रवेश कर दीवाल या
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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