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अन्तरङ्गकथा है। भवाङ्ग का उपच्छेद कर चित्त का आवर्जन होता है, जिससे यह सूचित होता है कि अब चतुर्थ ध्यान सम्पादित होगा, उसी पृथ्वी-कसिण में चार या पाँच जवन उत्पन्न होते हैं, केवल अन्तिम जवन रूपावचर चतुर्थ ध्यान का है।
चतुर्थ ध्यान के दो अङ्ग हैं-१. उपेक्षा-वेदना और २. एकाग्रता। चतुर्थ-ध्यान के उपचार-क्षण में चैतसिक सुख का प्रहाण होता है। कायिक दुःख का प्रथम ध्यान के उपचारक्षण में, चैतसिक दुःख का द्वितीय और कायिक सुख का तृतीय ध्यान के उपचार-क्षण में निरोध होता है पर अतिशय निरोध उस ध्यान की अर्पणा में ही होता है। प्रथम ध्यान के उपचार-क्षण में जो निरोध होता है वह अत्यन्त निरोध नहीं है, पर अर्पणा में प्रीति के स्फुरण से समग्र शरीर सुख से अवक्रान्त होता है। इस प्रकार प्रतिपक्षी सुख द्वारा दुःखेन्द्रिय का अत्यन्त निरोध होता है। इसी प्रकार यधपि द्वितीय ध्यान के उपचार-क्षण में चैतसिक दुःख का प्रहाण होता है तथापि वितर्क और विचार के कारण चित्त का उपघात हो सकता है, पर अर्पणा में वितर्क और विचार के अभाव से इसकी कोई सम्भावना नहीं है। इसी प्रकार यद्यपि तृतीय ध्यान के उपचार-क्षण में कायिक सुख का निरोध होता है तथापि सुख के प्रत्यय (हेतु) प्रीति के रहने से कायिक सुख की उत्पत्ति सम्भव है। पर अर्पणा में प्रीति के अत्यन्त निरोध से इसकी सम्भावना नहीं रह जाती। इसी तरह चतुर्थ-ध्यान के उपचार-क्षण में अर्पणा-प्रास उपेक्षा के अभाव तथा भली प्रकार से चैतसिक सुख का अतिक्रम न होने से चैतसिक सुख की उत्पत्ति सम्भव है, पर अर्पणा में इसकी सम्भावना नहीं है।
यह दुःख और सुख-रहित अतिसूक्ष्म और दुर्विज्ञेय है; सुगमता से इसका ग्रहण नहीं हो सकता। यह न कायिक सुख है न कायिक दुःख, न चैतसिक सुख है न चैतसिक दुःख। यह सुख, दुःख, सौमनस्य (चैतसिक सुख) और दौर्मनस्य (चैतसिक दुःख) का अभावमात्र भी नहीं है। यह तीसरी वेदना है। इसे उपेक्षा भी कहते हैं। यही ठपेक्षा चित्त की विमुक्ति (चेतोविमुनि) है। सुख दुःखादि के प्रहाण से इसका अधिगम होता है।
सुख आदि के घात से राग-द्वेष प्रत्यय (हेतु) सहित नष्ट हो जाते हैं, अर्थात् उनका दूरीभाव हो जाता है। चतुर्थ ध्यान में स्मृति परिशुद्ध होती है। यह परिशुद्धि उपेक्षा के द्वारा होती है, अन्यथा नहीं। केवल स्मृति ही परिशुद्ध नहीं होती, किन्तु सब सम्प्रयुक्त धर्म भी परिशुद्ध हो जाते हैं। यद्यपि पहले तीन ध्यानों में भी उपेक्षा विद्यमान है तथापि उनमें वितर्क आदि विरोधी धर्मों द्वारा अभिभूत होने से तथा सहायक प्रत्ययों की विकलता से उनकी अपेक्षा अपरिशुद्ध होती है और उसके अपरिशुद्ध होने से सहजात धर्म, स्मृति आदि भी अपरिशुद्ध होते हैं। पर चतुर्थ-ध्यान में वितर्क आदि विरोधी धर्मों के उपशम से तथा उपेक्षा-वेदना के प्रतिलाभ से उपेक्षा अत्यन्त परिशुद्ध होती है और साथ ही साथ स्मृति आदि भी परिशुद्ध होती है।
ध्यान-पञ्चक के द्वितीय ध्यान में केवल वितर्क नहीं होता और विचार, प्रीति, सुख, और एकाग्रता ये चार अङ्ग होते हैं, तृतीय ध्यान में विचार का परित्याग होता है और प्रीति, सुख और एकाग्रता यह तीन अङ्ग होते हैं, अन्तिम दो ध्यान ध्यान-चतुष्क के तृतीय और चतुर्थ हैं। ध्यान-चतुष्क के द्वितीय ध्यान को ध्यान-पञ्चक में दो ध्यानों में विभक्त करते हैं।।
५.शेषकसिणनिर्देश .. आपोकसिण-सुखपूर्वक बैठकर जल में निमित का ग्रहण करना चाहिये। नील, पीत, लोहित और अवदात वर्षों में से किसी वर्ण का जल ग्रहण न करना चाहिये। पूर्व इसके