________________
४६
विसुद्धिमग्ग
उत्पन्न होती है वह 'संस्कारोपेक्षा' है। यह उपेक्षा समाधिवश आठ और विपश्यनावश दश प्रकार की है। जो उपेक्षा दुःख और सुख से रहित है वह 'वेदनोपेक्षा' कहलाती है । अनित्यादि लक्षणों पर विचार करने से पञ्चस्कन्ध के विषय में जो उपेक्षा उत्पन्न होती है वह 'विपश्यनोपेक्षा' है । जो उपेक्षा सम्प्रयुक्त धर्मों की समप्रवृत्ति में हेतु होती है। वह 'तत्रमध्यत्वोपेक्षा' है। जो उपेक्षा तृतीय- ध्यान के अग्रसुख के विषय में भी पक्षपातरहित है वह 'ध्यानोपेक्षा' कहलाती है। जो उपेक्षा नीवरण, वितर्क, विचारादि अन्तरायों से विमुक्त है और जो उनके उपशम के व्यापार में प्रवृत्त नहीं है वह 'परिशुद्धयुपेक्षा' कहलाती है ।
इन दश प्रकार की उपेक्षाओं में षडङ्गोपेक्षा, ब्रह्मविहारोपेक्षा, बोध्यङ्गोपेक्षा, तत्रमध्यत्वोपेक्षा, ध्यानोपेक्षा, और परिशुद्धयुपेक्षा अर्थतः एक हैं; केवल अवस्थाभेद से संज्ञा में भेद किया गया है। इसी प्रकार संस्कारोपेक्षा और विपश्यनोपेक्षा का अर्थतः एकीभाव है। यथार्थ में दोनों प्रज्ञा के कार्य हैं, केवल कार्य के भेद से संज्ञा-भेद किया गया है। विपश्यना-ज्ञान द्वारा लक्षण-त्रय का ज्ञान होने से संस्कारों के अनित्यभावादि के विचार में जो उपेक्षा उत्पन्न होती है. वह विपश्यनोपेक्षा है। लक्षण -त्रय के ज्ञान से तीन भवों को आदीप्त देखने वाले साधक को संस्कारों के ग्रहण में जो उपेक्षा होती है, वह संस्कारोपेक्षा है। किन्तु वीर्योपेक्षा और वेदनोपेक्षा, एक दूसरे से तथा अन्य उपेक्षाओं से, अर्थतः भिन्न हैं। इन दश उपेक्षाओं में से यहाँ ध्यानोपेक्षा अभिप्रेत है। उपेक्षाभाव इसका लक्षण है; प्रणीत सुख का भी यह आस्वाद नहीं करती, प्रीति से यह विरक्त है और व्यापाररहित है। -
यह उपेक्षा भाव प्रथम तथा द्वितीय ध्यान में भी पाया जाता है। पर वहाँ वितर्क आदि से अभिभूत होने के कारण इसका कार्य अव्यक्त रहता है, तृतीय ध्यान में वितर्क, विचार और प्रीति से अनभिभूत होने के कारण इसका कार्य परिव्यक्त होता है, इसलिये इसी ध्यान के सम्बन्ध में कहा गया है कि साधक तृतीय ध्यान का लाभ कर उपेक्षा भाव से विहार करता है। तृतीय ध्यान का लाभी सदा जागरूक रहता है और इस बात का ध्यान रखता है कि प्रीति से अपनीत तृतीय ध्यान का सुख प्रीति से फिर सम्प्रयुक्त न हो जाय। तृतीय ध्यान का सुख मधुर है। इससे बढ़कर कोई दूसरा सुख नहीं है और जीव स्वभाव से ही सुख में अनुरक्त होते हैं। इसी लिये साधक इस ध्यान में स्मृति और सम्प्रजन्य द्वारा सुख में आसक्त नहीं होता और प्रीति को उत्पन्न नहीं होने देता। जिस प्रकार खड्ग की धार पर बहुत सँभल कर चलना होता है उसी प्रकार इस ध्यान में चित्त की गति का भली प्रकार निरूपण करना पड़ता है और सदा सतर्क और जागरूक रहना पड़ता है।
साधक इस ध्यान में चैतसिक सुख का लाभ करता है और ध्यान से उठकर कायिक सुख का भी अनुभव करता है, क्योंकि उसका शरीर अति प्रणीत रूप से व्याप्त हो जाता है । जब तीसरे ध्यान का पाँच प्रकार से अच्छी तरह अभ्यास हो जाता है, तब तृतीय ध्यान से उठकर साधक विचारता है कि तृतीय- ध्यान सदोष है; क्योंकि इसका सुख स्थूल है और इसलिये इसके अङ्ग दुर्बल हैं। यह देखकर कि चतुर्थ ध्यान शान्त है उसे चतुर्थ-ध्यान के लिये यत्नशील होना चाहिये ।
जब स्मृति - सम्प्रजन्यपूर्वक वह ध्यान के अङ्गों की प्रत्यवेक्षा करता है तो उसे ज्ञात होता है कि चैतसिक सुख स्थूल हैं और उपेक्षा, वेदना तथा चित्तैकाग्रता शान्त हैं। तब स्थूल अङ्ग के प्रहाण तथा शान्त अङ्गों के प्रतिलाभ के लिये वह उसी पृथ्वीनिमित्त का बार-बार ध्यान करता