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________________ अन्तरङ्गकथा ४५ - द्वितीय ध्यान के पक्ष में वितर्क और विचार का अनुत्पाद होता है। इसलिये द्वितीय ध्यान वितर्क और विचार से रहित है। वितर्कसम्प्रयुक्त स्पर्श आदि धर्म द्वितीय ध्यान में रहते हैं; पर प्रथम ध्यान के स्पर्श आदि से भिन्न प्रकार के होते हैं। द्वितीय ध्यान के केवल तीन अङ्ग हैं१. प्रीति, २. सुख, और ३. एकाग्रता द्वितीयध्यान 'सम्प्रसादन' है। अर्थात् श्रद्धायुक्त होने के कारण तथा वितर्क-विचार के क्षोभ के कारण यह चित्त को सुप्रसन्न करता है। सम्प्रसाद इस ध्यान का परिष्कार है। यह ध्यान वितर्क-विचार से अध्यारूद न होने के कारण अग्र और श्रेष्ठ होकर ऊपर उठता है अर्थात् समाधि की वृद्धि करता है। इसलिये इसे 'एकोदिभाव' कहते हैं। पहला ध्यान वितर्क-विचार के कारण क्षुब्ध और समाकुल होता है। इसलिये उसमें यथार्थ श्रद्धा होती है तथापि वह 'सम्प्रसादन' नहीं कहलाता। सुप्रसन्न न होने से प्रथम ध्यान की समाधि भी अच्छी तरह आविर्भूत नहीं होती। इसलिये उसका एकोदिभाव नहीं होता। किन्तु दूसरे ध्यान में वितर्क और विचार के अभाव से श्रद्धा अवकाश पाकर बलवती होती है और बलवती श्रद्धा की सहायता से समाधि भी अच्छी तरह आविर्भूत होती है। द्वितीय ध्यान का भी उक्त पाँच प्रकार से अभ्यास करना चाहिये । द्वितीय ध्यान से उठ कर साधक विचार करता है कि द्वितीय ध्यान भी सदोष है; क्योंकि इसकी प्रीति स्थूल है और इसलिये इसके अङ्ग दुर्बल हैं। इस प्रीति के विषय में कहा है कि इसने परिग्रह में प्रेम का परित्याग नहीं किया और यह तृष्णासहगत होती है; क्योंकि इस प्रीति की प्रवृत्ति का आकार उद्वेगपूर्ण होता है। यह देख कर कि तृतीय ध्यान की वृत्ति शान्त है, तृतीय- ध्यान के लिये यत्नशील होना चाहिये। जब वह ध्यान के अङ्गों की प्रत्यवेक्षा करता है, तो उसे प्रीति स्थूल और सुख - एकाग्रता शान्त ज्ञात होते हैं। वह स्थूल अङ्ग के प्रहाण के लिये पृथ्वी निमित्त का बारम्बार चिन्तन करता है। तब भवाङ्ग का उच्छेद हो चित्त का आवर्जन होता है। तदनन्तर उसी पृथ्वीकसिण आलम्बन में चार या पाँच जवन उत्पन्न होते हैं। इनमें केवल अन्तिम जवन रूपावचर तृतीय - ध्यान का है। तृतीय ध्यान के क्षण में प्रीति का अनुत्पाद होता है। इस ध्यान के दो अङ्ग हैं - १. सुख और २. एकाग्रता । उपेक्षा, स्मृति और सम्प्रजन्य इसके परिष्कार हैं। • प्रीति का अतिक्रमण करने से और विर्तक-विचार के उपशम से तृतीय ध्यान का लाभी उपेक्षाभाव रखता है, वह समदर्शी होता है अर्थात् पक्षपातरहित हो देखता है। इसकी समदर्शिता विशद, विपुल और स्थिर होती है। इस कारण तृतीय- ध्यान का लाभी उपेक्षक कहलाता है। उपेक्षा दस प्रकार की होती है- १. षडङ्गोपेक्षा, २. ब्रह्मविहारोपेक्षा, ३. बोध्यङ्गोपेक्षा, ४. वीर्योपेक्षा, ५. संस्कारोपेक्षा, ६. वेदनोपेक्षा, ७. विपश्यनोपेक्षा, ८. तत्रमध्यत्वापेक्षा, ध्यानोपेक्षा और १०. परिशुद्धपेक्षा । छह इन्द्रियों के छह इष्ट-अनिष्ट विषयों से क्लिष्ट न होना और अपनी शुद्धप्रकृति को निश्चल रखना 'षड़ङ्गोपेक्षा' है। सब प्राणियों के प्रति समभाव रखना 'ब्रह्मविहारोपेक्षा' कहलाती है। आलम्बन में चित की समप्रवृत्ति से और प्रग्रह- निग्रह - सम्प्रहर्षण के विषय में व्यापार का अभाव होने से सम्प्रयुक्त धर्मों में उदासीन वृत्ति को 'बोध्यङ्गोपेक्षा' कहते हैं। जो वीर्य लीन और उद्धत भाव से रहित है उसे 'वीर्योपेक्षा' कहते हैं। भावना की समप्रवृत्ति के समय जो उपेक्षाभाव होता है, उसे 'वीर्योपेक्षा' कहते हैं। प्रथम-ध्यान आदि से नीवरण आदि का प्रहाण होता है यह निश्चय कर और नीवरणादि धर्मों के स्वभाव की परीक्षा कर संस्कारों के ग्रहण में जो उपेक्षा
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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