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________________ ४४ विसुद्धिमग्ग इस प्रकार ध्यान - भावना भी वृद्धि को प्राप्त होती है। प्रतिभाग-निमित्त की वृद्धि के लिये दो भूमियाँ हैं- १- १. उपचार और २. अर्पणा । इन दो स्थानों में से एक में तो अवश्य ही इसकी वृद्धि करनी चाहिये । प्रतिभाग- निमित्त की वृद्धि परिच्छिन्न रूप से ही करनी चाहिये। क्योंकि विना परिच्छेद के भावना की प्रवृत्ति नहीं होती। इसकी वृद्धि क्रमशः चक्रवालंपर्यन्त की जा सकती है। जिस साधक ने पहले ध्यान का लाभ किया हो उसे प्रतिभाग-निमित्त का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये; पर अधिक प्रत्यवेक्षा न करनी चाहिये। क्योंकि प्रत्यवेक्षा के आधिक्य से ध्यान के अन अतिविभूत ज्ञात होते हैं और प्रगुण-भाव को नहीं प्राप्त होते। इस प्रकार वे स्थूल और दुर्बल ध्यान के अङ्ग उत्तर- ध्यान के लिये उत्सुकता उत्पन्न नहीं करते। उद्योग करने पर भी साधक प्रथम ध्यान से च्युत होता है दूसरे ध्यान का लाभ नहीं करता। साधक को इसलिये पाँच प्रकार से प्रथम ध्यान पर आधिपत्य प्राप्त करना चाहिये। तभी द्वितीय ध्यान की प्राप्ति हो सकती है। पाँच प्रकार ये हैं - १. आवर्जन, २. सम, ३. अधिष्ठान, ४. व्युत्थान और ५. प्रत्यवेक्षण । देश और काल में ध्यान के प्रत्येक अङ्ग को इट समय के लिये शीघ्र यथारुचि प्रवृत्त करने की सामर्थ्य आवर्जनवशिता कहलाती है। जिसकी आवर्जन- वशिता सिद्ध हो चुकी है वह जहाँ चाहे जब चाहे और जितनी देर तक चाहे प्रथम ध्यान के किसी अङ्ग को तत्काल प्रवृत्त कर सकता है। आवर्जनवशिता प्राप्त करने के लिये साधक को क्रमशः ध्यान के अर्शों का आवर्जन करना चाहिये। जो साधक प्रथम ध्यान से उठकर पहले वितर्क का आवर्जन करता है और भवाङ्ग का उपच्छेद करता है; उसमें उत्पन्न आवर्जन के बाद ही वितर्क को आलम्बन बनाकर चार या पाँच जीवन (चेतनाएँ) उत्पन्न होते हैं। तदनन्तर दो क्षण के लिये भवाङ्ग में पात होता है। तब विचार को आलम्बन बनाकर उक्त प्रकार से फिर जवन उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार साथक को ध्यान के पाँचों अङ्गों में चित्त को निरन्तर प्रेषित करने की शक्ति प्राप्त होती है। अङ्गावर्जन के साथ ही ध्यानसमङ्गी होने की योग्यता एक या दस अङ्गुलिस्फोट (चुटकी) के काल तक वेग को रोक कर ध्यान की प्रतिष्ठा करने की शक्ति अधिष्ठानवशिता है। ध्यानसमङ्गी होकर ध्यान से उठने की सामर्थ्यव्युत्थान वशिता है यह व्युत्थान भवाङ्ग-चिस की उत्पत्ति ही है। पूर्व परिकर्मवश इस प्रकार की शक्ति सम्पन्न करना कि, मैं इतने क्षण ध्यानसमङ्गी होकर ध्यान से व्युत्थान करूंगा, व्युत्थानवशिता है। वितर्क आदि ध्यान के अङ्गों के यथाक्रम आवर्जन के अनन्तर जो जवन प्रवृत्त होते हैं वे प्रत्येवक्षण के जवन हैं। इनके प्रत्यवेक्षण की शक्ति प्रत्यवेक्षण- वशिता है। जो इन पाँच प्रकारों से प्रथम ध्यान में अभ्यस्त हो जाता है वह परिचित प्रथम ध्यान से उठकर यह विचारता है कि प्रथम ध्यान सदोष है। क्योंकि इसके वितर्क-विचार स्थूल हैं और इसलिए इसके अङ्ग दुर्बल और परिक्षीण (= ओळारिक) हैं। यह देख कर कि द्वितीय ध्यान की वृत्ति शान्त है और उसके प्रीति, सुख आदि शान्ततर और प्रणीतर हैं, उस द्वितीय ध्यान के अधिगम के लिये समृति-सम्प्रजन्यपूर्वक वह ध्यान के अङ्गों की प्रत्यवेक्षा करता है तो उसे ज्ञात होता है कि वितर्क-विचार स्थूल हैं और प्रीति, सुख और एकाग्रता शान्त हैं। वह स्थूल अङ्गों के प्राण तथा शान्त अङ्गों के प्रतिलाभ के लिये उसी पृथ्वी- निमित्त का बारम्बार ध्यान करता है। तब भवाङ्ग का उपच्छेद होकर चित्त का आवर्जन होता है। इससे यह सूचित होता है कि अब द्वितीय ध्यान सम्पादित होगा । उसी पृथ्वीकसिण में चार या पाँच जवन उत्पन्न होते हैं। केवल अन्तिम जवन रूपावचर दूसरे ध्यान का है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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