SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तरङ्गकथा ४९ भूमि पर आलोक-मण्डल बनाता है, या घने वृक्ष की शाखाओं से निकलकर जो आलोक जमीन पर आलोक-मण्डल बनाता है, उसमें भावना द्वारा साधक निमित्त का उत्पाद करता है। पर यह अवभास-मण्डल चिरकाल तक नहीं रहता। इसलिये साधारण जन इसके द्वारा निमित्त का उत्पाद करने में असमर्थ भी होते हैं। ऐसे लोगों को घट में दीपक जलाकर घट का मुख ढक देना चाहिये, और घट में छेदकर घट को दीवार के सामने रख देना चाहिये। छेद से दीप का जो आलोक निकलता है वह दीवाल पर मण्डल बनाता है। उद्ग्रह-निमित्त दीवाल या भूमि पर बने आलोकमण्डल की तरह होता है। प्रतिभागनिमित्त बहल और शुभ्र आलोकपुञ्ज की तरह होता है। उसी आलोकमण्डल में भावना करनी चाहिये। परिच्छन्नाकाश-कसिण-जो अधिकारी है वह किसी छिद्र में निमित्त का उत्पाद कर लेता है। सामान्य साधक सुच्छन्न मण्डल में या चमड़े की चटाई में एक बालिश्त चार अङ्गल का छेद बनाकर उसी छेद में भावना द्वारा निमित्त का ग्रहण करता है। उद्ग्रह-निमित्त दीवाल के कोनों के साथ छेद की तरह होता है। उसकी वृद्धि नही होती। प्रतिभाग-निमित्त आकाशमण्डल की तरह उपस्थित होता है। उसकी वृद्धि हो सकती है। ____६. अशुभकर्मस्थाननिर्देश कर्मस्थानों का संक्षिप्त विवरण ऊपर दे दिया गया है। उखुमातक आदि इन दस कर्मस्थानों का ग्रहण साधक को आचार्य के पास ही करना चाहिये। . कर्मस्थान सभाग है या विसभाग-इसकी परीक्षा करनी चाहिये। पुरुष के लिये स्त्रीशरीर विसभाग है और स्त्री के लिये पुरुष-शरीर। इस लिए अशुभ कर्मस्थान अमुक स्थान पर -- है-ऐसा जानने पर भी उसको ठीक जाँच करके ही उस स्थान पर जाना चाहिये। ऐसे कर्मस्थान प्रायः श्मशान पर ही मिलते हैं, जहां वन्य पशु भूत-प्रेत और चोरों का भय रहता है। सङ्घ-स्थविर को कहकर जाने से योगावचर भिक्षु की पूर्ण व्यवस्था की जा सकती है। साधक को ऐसे कर्मस्थान के पास एकाकी जाना चाहिये। जिस प्रकार क्षत्रिय अभिषेक स्थान पर, या यजमान यज्ञशाला पर, या निर्धन निधि-स्थान की ओर सौमनस्यचित्त से जाता है उसी प्रकार साधक को उपस्थित स्मृति से, संवृत-इन्द्रियों से, एकाग्र चित्त से अशुभ कर्मस्थान के पास जाना चाहिये। वहीं जाकर अशुभ-निमित्त को सहज भाव से देखना चाहिये। साधक को वर्ण, लिन्न, संस्थान, दिशा, अवकाश, परिच्छेद, सन्धि, विवर आदि निमित्तों को सुग्रहीत करना चाहिये। उस को अशुभ-ध्यान के गुणों का दर्शन करके अशुभ-कर्मस्थान को अमूल्य रत्न के समान देखकर चित्त को उस आलम्बन पर एकाग्र करना चाहिये और सोचना चाहिये-"मैं इस प्रतिपदा के कारण जरा-मरण से मुक्त होऊँ"। चित्त की एकाग्रता के साथ ही वह कामों से विविक्त होता है, अकुशलधर्मों से विविक्त होता है, और विवेकज प्रीति के साथ प्रथमध्यान को प्राप्त करता है। इस कर्मस्थान में प्रकमध्यान से आगे बढ़ा नहीं जाता; क्योंकि यह आलम्बन दुर्बल होने से वितर्क के विना चित्त उसमें स्थिर नहीं रहता। इसी कारण, प्रथम ध्यान के बाद इसी आलम्बन को लेकर द्वितीय ध्यान असम्भव है॥ (स्वामी द्वारिकादासशास्त्री)
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy