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________________ विसुद्धिमग्ग जीवों और संस्कारों के प्रति उपेक्षा भाव, ऐसे लोगों का परित्याग जिनको जीव और संस्कार प्रिय हैं, ऐसे लोगों का आसेवन जो जीव और संस्कारों के प्रति उपेक्षा भाव रखते हैं तथा उपेक्षापरायणता से उपेक्षा का उत्पाद होता है । ६. जिस समय चित्त का सम्प्रहर्षण (=सन्तर्पण) करना चाहिये उस समय चित्तके सम्प्रहर्षण से । जब प्रज्ञाव्यापार के अल्पभाव के कारण या उपेशम-सुख के अलाभ के कारण चिस का तर्पण नहीं होता तब आठ संवेगों द्वारा संवेग उत्पन्न करना चाहिये। जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अपाय दुःख, अतीत में जिस दुःख का मूल हो, अनागत में जिस दुःख का मूल हो और वर्तमान में आहारपर्येषण का दुःख-ये आठ संवेग-वस्तु हैं। बुद्ध, धर्म और सङ्घ के गुणों के अनुस्मरण से चित्त का सम्प्रसाद होता है। ७. जिस समय चित्त का उपेक्षा भाव होना चाहिये उस समय चित्त की उदासीनवृत्ति से। जब भावना करते हुए योगी के चित्त का व्यापार मन्द नहीं होता, चित्त का विक्षेप नहीं होता, चित्त को उपशम-सुख का लाभ होता है, आलम्बन में चित्त की सम प्रवृत्ति होती है और. शमथ के मार्ग में चित्त का आरोहण होता है; तब प्रग्रह, निग्रह और सम्प्रहर्षण के विषय में चित्त की उदासीन वृत्ति होती है। ८. ऐसे लोगों के परित्याग से जो अनेक कार्यों में व्याप्त रहते हैं, जिनका हृदय विक्षिप्त है और जो ध्यान के मार्ग में कभी प्रवृत्त नहीं हुए हैं। ९. समाधि - लाभी पुरुषों के आसेवन से । १०. समाधि-परायण होने से । ४० उक्त दस प्रकार से अर्पणा में कुशलता प्राप्त की जाती है। आलस्य और चित्तविक्षेप का निवारण कर जो योगी सम प्रयोग से भावनचित्त को प्रतिभाग- निमित्त में स्थिर करता है वह अर्पणा-समाधि का लाभ करता है। चित्त के लीन और उद्धत भावों का परित्याग कर निमित्त की ओर चित्त को प्रवृत्त करना चाहिये । जब योगी चित्त को निमित्त की तरफ प्रेरित करता है तब चित्त-द्वार भावना के बल से उपस्थित उसी पृथ्वीमण्डलरूपी आलम्बन को अपनी ओर आकृष्ट करता है। उस समय उस आलम्बन में चार या पाँच चेतनाएँ (जवन) उत्पन्न होती हैं। इनमें से अन्तिम रूपावचर भूमि की है; शेष तीन या चार चेतनाएँ काम-धातु की हैं। प्राकृतिक चित्त की अपेक्षा इन तीन या चार चेतनाओं के वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता आदि भावना के बल से पटुतर होते हैं। इन्हें 'परिकर्म' (परिकम्म) कहते हैं। क्योंकि ये चेतनाएँ अर्पणा की प्रतिसंस्कारक हैं। अर्पणा का समीपवर्ती होने से इन्हें 'उपचार' भी कहते हैं। अर्पणा के अनुलोम होने से इनकी 'अनुलोम' संज्ञा भी है। तीसरी या चौथी चेतना गोत्रभू कहलाती है। यह चेतना ( = जवन) काम - तृष्णा के विषयों के विशेष रूप और अनुत्तर धर्मों के साम्परायिक रूप की सीमा पर स्थित है। इस प्रकार में ये सब संज्ञाएँ सामान्य रूप से सब जवनों की हैं। यदि विशेषता के साथ कहा जाय तो पहला जवन 'परिकर्म', दूसरा 'उपचार', तीसरा 'अनुलोम', चौथा 'गोत्रभू', या पहला 'उपचार', दूसरा 'अनुलोम', तीसरा 'गोत्रभू', और चौथा या पाँचवाँ 'अर्पणा' है। जिसकी बुद्धि प्रखर है उसकी चौथे जवन में अर्पणा की सिद्धि होती है; पर जिसकी बुद्धि मन्द है उसको पाँचवें जवन में अर्पणा चित्त का लाभ होता है। चौथे या पाँचवें जवन में ही अर्पणा की सिद्धि होती है। तत्पश्चात् चेतना भवाङ्ग में अवतीर्ण होती है। अर्पणा का काल-परिच्छेद
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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