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अन्तरङ्गकथा
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एक चित्त-क्षण है, तदनन्तर भवाङ्ग में पात होता है। पीछे भवाङ्ग का उपच्छेद कर ध्यान की प्रत्यवेक्षा के लिये चित्तावर्जन होता है; तत्पश्चात् ध्यान की परीक्षा होती है।
काम और अकुशल के परित्याग से ही प्रथम ध्यान का लाभ होता है, यह प्रथम ध्यान के प्रतिपक्ष हैं। प्रथम ध्यान में विशेष कर काम-धातु का अतिक्रमण होता है। काम से 'वस्तुकाम' का आशय है। जो वस्तु (जैसे, प्रिय-मनोरम-रूप) काम का उद्दीपन करे वह वस्तुकाम है, किसी वस्तु के लिये अभिलाष, राग तथा लोभ के प्रभेद 'क्लेशकाम' कहलाते हैं। अकुशल से क्लेशकाम तथा अन्य अकुशल का आशय है। काम के परित्याग से कार्य-विवेक और अकुशल के विवर्जन से चित्त-विवेक सूचित होता है। पहले से तृष्णा आदि क्लेश के विषय का परित्याग और दूसरे से क्लेश का परित्याग सूचित होता है। पहले से काम-सुख का परित्याग और दूसरे से ध्यान-सुख का परिग्रह प्रकाशित होता है। पहले से चपल भाव के हेतु का परित्याग और दूसरे से अविद्या का परित्याग; पहले से प्रयोग-शुद्धि (प्राणातिपातादि अशुद्ध प्रयोग का परित्याग) और दूसरे से अध्याशय की शुद्धि सूचित होती है।
यद्यपि अकुशल धर्मों में दृष्टि, मान आदि पाप भी संगृहीत हैं; तथापि यहाँ केवल उन्हीं अकुशल धर्मों से तात्पर्य है जो ध्यान के अङ्गों के विरोधी हैं। यहाँ अकुशल धर्मों से पाँच वरणों से ही आशय है। ध्यान के अङ्ग इनके प्रतिपक्ष हैं और इनका विषात करते हैं। समाधि कामच्छन्द (अभिलाष, लोभ, तृष्णा) का प्रतिपक्ष है, प्रीति व्यापाद (हिंसा) का प्रतिपक्ष है, वितर्क का स्त्यान (आलस्य, अकर्मण्यता) प्रतिपक्ष है; सुख का औद्धत्य - कौकृत्य (अनवस्थितता, खेद) और विचार का विचिकित्सा प्रतिपक्ष है। इस प्रकार काम के विवेक से कामच्छन्द विष्कम्भन और अकुशल धर्मों के विवेक से शेष चार नीवरणों का विष्कम्भन होता है। पह लोभ (अकुशल-मूल) और दूसरे से द्वेष-मोह, पहले से तृष्णा तथा तत्सम्प्रयुक्त अवस्था, दूसरे से अविद्या तथा तत्सम्प्रयुक्त अवस्था का परित्याग सूचित होता है।
ये पाँच नीवरण प्रथम- ध्यान के प्रहाण - अङ्ग हैं। जब तक इनका विष्कम्भन नहीं होता तब तक ध्यान का उत्पाद नहीं होता। ध्यान के क्षण में अन्य अकुशल धर्मों का भी प्रहाण होता है; तथापि नीवरण ध्यान में विशेष रूप से अन्तराय उपस्थित करते हैं। इन पाँच नीवरणों का परित्याग कर प्रथम ध्यान वितर्क, विचार, प्रीति, सुख, और समाधि इन पाँच अङ्गों से समन्वागत होता है।
आलम्बन के विषय में यह कल्पना कि यह ऐसा है 'वितर्क' कहलाता है। अथवा आलम्बन के समीप चित्त का आनयन आलम्बन में चित्त का प्रथम प्रवेश 'वितर्क' कहलाता है। आलम्बन में चित्त की अविच्छिन्न- प्रवृत्ति 'विचार' है, वितर्क विचार का पूर्वगामी है। वितर्क चित्त का प्रथम अभिनिपात है। घण्टे के अभिघात से जो शब्द उत्पन्न होता है वह वितर्क के समान है। इसका जो अनुरव होता है वह विचार के समान है। जिस प्रकार आकाश में उड़ने की इच्छा करनेवाला पक्षी पक्ष-विक्षेपं करता है, इसी प्रकार वितर्क की प्रथमोत्पत्ति के काल में विचार की वृत्ति शान्त होती है; उसमें चित्त का अधिक परिस्पन्दन नहीं होता। विचार आकाश में उड़ते हुए पक्षी के पक्ष प्रसारण या कमल के ऊपरी भाग पर भ्रमर के परिभ्रमण के समान है। काय और चित्त के तर्पण, परितोषण को 'प्रीति' कहते हैं। प्रीति प्रणीत रूप से काम में व्याप्त होती है और इसका उत्कृष्ट-भाव होता है। 'प्रीति' पाँच प्रकार की है- १. क्षुद्रिका प्रीति, २. क्षणिका प्रीति, ३. अवक्रान्तिका प्रीति, ४. उद्वेगा प्रीति, ५. स्फरणा प्रीति । क्षुद्रिका प्रीति शरीर