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________________ अन्तरङ्गकथा चाहिये। इनसे मन्द-चित्त का उत्थान होता है। कुशल और अकुशल के स्वभाव तथा सामान्य लक्षणों के यथार्थ अवबोध से धर्मविचय की भावना होती है। आलस्य के परित्याग से अभ्यासवश कुशल-क्रियों का आरम्भ वीर्यसञ्चय और प्रतिपक्ष धर्मों के विध्वंसन की पटुता प्राप्त होती है। प्रीतिसम्प्रयुक्त धर्मों का निरन्तर चिन्तन करने से प्रीति का उत्पाद और वृद्धि होती है। परिप्रश्न, शरीरादि की शुद्धता, इन्द्रिय-समभाव-करण, मन्दबुद्धिवालों के परिवर्जन, प्रज्ञावान् के आसेवन, स्कन्ध, आयतन, धातु, चार आर्यसत्य, प्रतीत्यसमुत्पाद आदि गम्भीर ज्ञानकथा की प्रत्यवेक्षा तथा प्रज्ञापरायणता से धर्मविचय का उत्पाद होता है। दुर्गति आदि दुःखावस्था की भीषणता का विचार करने से, इस विचार से कि लौकिक अथवा लोकोत्तर में जो कुछ विशेषता है उसकी प्रीति वीर्य के अधीन, इस विचार से कि आलसी पुरुष बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध, महाश्रावकों के मार्ग का अनुगामी नहीं हो सकता, शास्ता के महत्त्व का चिन्तन करने से (शास्ता ने हमारे साथ बहुत उपकार किया है, शास्ता के शासन का अतिक्रमण नहीं हो सकता, वीर्यारम्भ (=कुशलोत्साह) की शास्ता ने प्रशंसा की है), धर्मदायादय के महत्त्व का चिन्तन करने से (मुझे धर्म का दायाद होना चाहिये, आलसी पुरुष धर्म का दायाद नहीं हो सकता), आलोक-संज्ञा के चिन्तन से, ईर्यापथ के परिवर्तन और खुली जगह रहने से, आलस्य और अकर्मण्यता का परित्याग करने से, आलसियों के परिवर्जन और वीर्यवान् के आसेवन से, व्यायाम (उद्योग) के चिन्तन से तथा वीर्यपरायण होने से वीर्य का उत्पाद होता बुद्ध, धर्म, सङ्घ शील, त्याग (दान), देवता और उपशम के निरन्तर स्मरण से, बुनादि में जो स्नेह और प्रासाद नहीं रखता उसके परिवर्जन तथा बुद्ध में जो स्निग्ध है उसके आसेवन से, सम्पसादनीय सुत्त के चिन्तन तथा प्रीति-परायण होने से प्रीति का उत्पाद होता है। ५. जिस-समय चित्त का निग्रह करना हो उस समय चित्त का निग्रह करने से। जिस समय वीर्य, संवेग, (-वैराग्य), प्रामोद्य के अतिरेक से चित्त उद्धत और अनवस्थित होता है उस समय धर्मविषय, वीर्य और प्रीति की भावना अनुपयुक्त है, क्योंकि इनसे उद्धतचित्त का समाधान नहीं हो सकता। ऐसे समय प्रश्रब्धि, समाधि और उपेक्षा इन बोध्यङ्गों की भावना करनी चाहिये। काय और चित्त की शान्ति का निरन्तर चिन्तन करने से प्रश्रब्धि की भावना, शमथ और अव्यग्रता का निरन्तर चिन्तन करने से समाधि की भावना और उपेक्षासम्प्रयुक्त धर्मों का निरन्तर चिन्तन करने से उपेक्षा की भावना होती है। प्रणीत भोजन, अच्छी ऋतु उपयुक्त ईर्यापथ के आसेवन से, उदासीन वृत्ति से, क्रोधी पुरुष के परित्याग और शान्तचित्त पुरुष के आसेवन से तथा प्रश्रब्धि-परायण होने से प्रश्रधिका उत्पाद होता है। शरीरादि की शुद्धता से, निमितकुशलता से, इन्द्रिय-समभाव-कारण से, समय-समय पर पित के प्रग्रह (-लीन चित्त का उत्थान) और निग्रह (=उस्त चित्त का समाधान) करने से, श्रद्धा और संवेग (-वैराग्य) द्वारा उपशम-सुख-रहित चित्त का संतर्पण करने से प्रग्रह-निग्रह-सन्तर्पण के विषय में सम्यक्प्रवृत्त भावना-चित्त की विरक्तता से, असमाहित पुरुष के परित्याग और समाहित पुरुष के सेवन से, ध्यानों की भावना, उत्पाद, अधिष्ठान (-अवस्थिति) व्युत्थान, संक्लेश और व्यवदान (-विस्ता ). के चिन्तन से तथा समाधिपरायण होने से समाधि का उत्पाद होता है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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