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________________ विसुद्धिमग्ग चित्त एकाग्र होता है; उसी आवास में साधक को निवास करना चाहिये। जो गोचर, ग्राम, आवास के समीप हो और जहाँ भिक्षा सुलभ हो वही उपयुक्त है। साधक के लिये लौकिक कथा अनुपयुक है। इससे निमित्त का लोप होता है। साधक को ऐसे पुरुष का सङ्ग न करना चाहिये जो लौकिक कथा कहे; क्योंकि इससे समाधि में बाधा उपस्थित होती है और जो प्राप्त किया है वह भी नष्ट हो जाता है। उपयुक्त भोजन, ऋतु और ईर्यापथ (-वृत्ति) का आसेवन करना चाहिये, ऐसा करने से तथा बहुलता के साथ निमित्त का आसेवन करने से शीघ्र ही अर्पणासमाधि का लाभ होता है। पर यदि इस विधि से भी अर्पणा का उत्पाद न हो तो निम्नलिखित दश प्रकार से अर्पणा में कुशलता प्रास होती है: १.शरीर तथा चीवर आदि का शुद्धता से। यदि केश-नख बड़े हों, शरीर से दुर्गन्ध आती हो, चीवर जीर्ण तथा क्लिष्ट और आसन मैला हो तो चित्त तथा चैतसिक-धर्म भी अपरिशुद्ध होते हैं; ज्ञान भी अपरिशुद्ध होता है, समाधि भावना दुर्बल और क्षीण हो जाती है; कर्मस्थान भी प्रगुण भाव को नहीं प्राप्त होता और इस प्रकार अङ्गों का प्रादुर्भाव नहीं होता। इसलिये शरीर तथा चीवर आदिको विशद तथा परिशुद्ध रखना चाहिये जिसमें चित्त सुखी हो और एकाग्र हो। ___. २. अद्धादि इन्द्रियों के समभाव प्रतिपादन से। श्रद्धादि (श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रजा) इन्द्रियों में से यदि कोई एक इन्द्रिय बलवान् हो तो इतर इन्द्रियाँ अपने कृत्य में असमर्थ हो जाती हैं। जिसमें श्रद्धा का आधिक्य होता है और प्रज्ञा मन्द होती है, वह अवस्तु में श्रद्धा करता है जिसकी प्रज्ञा बलवती होती है और श्रद्धा मन्द होती है वह शठता का पक्ष ग्रहण करता है और उसका चित्त शुष्क तर्क से विलुप्त होता है। श्रद्धा और प्रज्ञा का अन्योन्यविरह अनर्थावह है। इसलिये इन दोनों इन्द्रियों का समभाव इष्ट है। दोनों की समता से ही अर्पणा होती है। इसी प्रकार वीर्य और समाधि का भी समभाव इष्ट है। समाधि यदि प्रबल हो और वीर्य मन्द हो तो आलस्य अभिभूत करता है। क्योंकि समाधि आलस्यपाक्षिक है। यदि वीर्य प्रबल हो और समाधि मन्द हो तो चित्त की भ्रान्तता या विक्षेप अभिभूत करता है; क्योंकि वीर्य विक्षेप-पाक्षिक है। किसी एक इन्द्रिय की सातिशय प्रवृत्ति होने से अन्य इन्द्रियों का व्यापार मन्द हो जाता है। इसलिये अर्पणा की सिद्धि के लिये इन्द्रियों की एकरसता अभीष्ट है। किन्तु शमथयानिक को बलवती श्रद्धा भी चाहिये। विना श्रद्धा के अर्पणा का लाभ नहीं हो सकता। यदि वह यह सोचे कि केवल पृथ्वी-पृथ्वी इस प्रकार चिन्तन करने से कैसे ध्यान की उत्पत्ति होगी तो अर्पणासमाधि का लाभ नहीं हो सकता। उसको भगवान् की बतायी हुई विधि की सफलता पर विश्वास होना चाहिये। बलवती स्मृति तो सर्वत्र अभीष्ट है; क्योंकि चित्त स्मृति-परायण है और इसलिये विना स्मृति के चित्त का निग्रह नहीं होता। ३. निमित्त कौशल से अर्थात् लब्ध-निमित्त की रक्षा में कुशल और दक्ष होने से। ४. जिस समय चित्त का प्रग्रह करना हो उस समय चित्त का प्रग्रह करने से। जिस समय वीर्य, प्रामोद्य आदि की शिथिलता से भावना-चित्त सङ्कचित होता है, उस समय प्रश्रधि (काय और चित्त की शान्ति), समाधि और उपेक्षा इन बोध्यङ्गों की भावना उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि इनसे संकुचित चित्त का उत्थान नहीं होता। जिस समय चित्त संकुचित हो उस समय धर्मविचय, (प्रज्ञा), वीर्य (उत्साह) और प्रीति इन बोध्यङ्गों की भावना करनी
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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