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. अन्तरकथा
३७ ने इसी मार्ग का अनुसरण किया है। मैं भी इसी मार्ग का अनुगामी हो एकान्त-सेवन के सुख का आस्वाद करूँगा" ऐसा विचार कर उसे योग-साधन के लिये उत्साह पैदा करना चाहिये। और सम आकार से चक्षु का उन्मीलन कर निमित्त-ग्रहण (-ठग्गहनिमित्त) की भावना करनी चाहिये। जिस प्रकार अतिसूक्ष्म और अतिभास्वर रूप के ध्यान से आंखें थक जाती है उसी प्रकार अति उन्मीलन से भी आँखें थक जाती हैं और मण्डल का रूप भी अत्यन्त प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके स्वभाव का अत्यन्त आविर्भाव होता है तथा उसके वर्ण और लक्षण अधिक स्पष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार निमित्त का ग्रहण नहीं होता। मन्द उन्मीलन से मण्डल का रूप दिखायी नहीं दता और दर्शन के कार्य में चित्त का व्यापार मन्द हो जाता है। इसलिये निमित्त का ग्रहण नहीं होता। अतः सम आकार से ही चक्षु का उन्मीलन करना चाहिये।
पृथ्वी-कसिण के अरुण वर्ण का चिन्तन और पृथ्वी-धातु के लक्षण का ग्रहण न करना चाहिये। यद्यपि वर्ण का चिन्तन निषिद्ध है, तथापि पृथ्वीधातु की उत्सन्नतावश वर्णसहित पृथ्वी की भावना एक प्रज्ञति के रूप में करनी चाहिये। इस प्रकार प्रतिमात्र में चित्त की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। लोक में सम्भारसहित पृथ्वी को 'पृथ्वी' कहते हैं। पृथ्वी, मही, मेदिनी, भूमि, वसुधा, वसुन्धरा आदि पृथ्वी के नामों में से जो नाम साधक को रुचिकर हो, उस नाम का उच्चारण कर भावना करना अच्छा है। कभी आँख खोलकर, कभी आँख मूंदकर, निमित्त का ध्यान करना चाहिये। जब भावनावश आंखें मूंदने पर उसी तरह जैसा आंख खोलने पर निमित्त का दर्शन हो, तब समझना चाहिये कि निमित्त का उत्पाद हुआ है। निमित्तोत्पाद के बाद उस स्थान पर नहीं बैठना चाहिये। अपने निवास स्थान में बैठकर भावना करनी चाहिये। यदि किसी अनुपयुक कारणवश इस तरुण समाधि का नाश हो जाय तो शीघ्र उस स्थान पर जाकर निमित्त का ग्रहण कर अपने वास-स्थान पर लौट आना चाहिये और बहुलता के साथ इस भावना का आसेवन और बार बार चित्त में निमित्त की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। ऐसा करने से क्रमपूर्वक नीवरण अर्थात् अन्तरायों का नाश और क्लेशों का उपशम होता है।
भावना-क्रम से जब श्रद्धा आदि इन्द्रियाँ सुविशद और तीक्ष्ण हो जाती हैं तब कामादि दोष का लोप होता है और उपचार-समाधि में चित्त समाहित हो प्रतिभाग-निमित्त का प्रादुर्भाव होता है। प्रतिभाग-निमित्त, उद्ग्रह-निमित्त (=ठग्गहनिमित्त) से कई गुना अधिक सुपरिशुद्ध होता है। उद्ग्रह-निमित्त में कसिण-दोष (जैसे अंगुली की छाप) दिखलायी पड़ते हैं; पर प्रतिभाग-निमित्त भास्वर और स्वच्छ होकर निकलता है। प्रतिभाग-निमित्त वर्ण और आकार (संस्थान) से रहित होता है। यह चक्षु द्वारा ज्ञेय नहीं है, यह स्थूल पदार्थ नहीं है और अनित्यता आदि लक्षणों से अङ्कित नहीं है। केवल समाधि-लाभी को यह उपस्थित होता है और भावनासंज्ञा से इसका उत्पाद होता है। इसकी उत्पत्ति के समय से ही अन्तरायों का नाश और क्लेशों का उपशम होता है तथा चित्त उपनार-समाधि द्वारा समाहित होता है।
प्रतिभाग-निमित्त का उत्पाद अतिदुष्कर है। इस निमित्तकी रक्षा बहुत प्रयत्न के साथ करनी चाहिये; क्योंकि ध्यान का यही आलम्बन है। निमित्त के विनष्ट होने से लब्ध ध्यान भी नष्ट हो जाता है। उपचार-समाधि के बलवान् होने से ध्यान के अधिगम की अवस्था अर्थात् अर्पणा समाधि उत्पन्न होती है। उस अवस्था में ध्यान के अन्नों का प्रादुर्भाव होता है। उपयुक के आसेवन और अनुपयुक्त के परित्याग से निमित्त की रक्षा और अर्पणा समाधि का लाभ होता है। जिस आवास में निमित्त उत्पन्न और स्थिर होता है, जहाँ स्मृति का सम्प्रमोष नहीं होता और