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विसुद्धिमग्ग अनुरूप विहार में निवास करते हुए योगी को पहले क्षुद्र अन्तरायों का उपच्छेद करना चाहिये। अर्थात् यदि चीवर मैला हो तो उसे फिर से रंगवाना चाहिये, यदि पात्र मैला हो तो उसे शुर करना चाहिये, यदि केश और नख बढ़ गये हों तो उनको कटवाना चाहिये और यदि चीवर जीर्ण हो गया हो तो उसको सिलवाना चाहिये। इस प्रकार क्षुद्र अन्तरायों का उपच्छेद करना चाहिये।
भोजन के बाद थोड़ा विश्राम कर एकान्त स्थान में पर्यङ्कबद्ध हो सुखपूर्वक बैठकर प्राकृतिक अथवा कृत्रिम पृथ्वी-मण्डल में भावना-ज्ञान द्वारा पृथ्वीनिमित्त का ग्रहण करना चाहिये; अर्थात् पृथ्वीमण्डल की ओर बार-बार देखकर चक्षुर्निमीलन द्वारा पृथ्वीनिमित्त को मन में अच्छी तरह धारण करना चाहिये, जिसमें पुनरवलोकन के क्षण में ही वह निमित्त उपस्थित हो जाय।
जो पुण्यवान् है और जिसने पूर्वजन्म में श्रमण-धर्म का पालन करते हुए पृथ्वीकसिण नाम कर्मस्थान की भावना कर ध्यानों का उत्पाद किया है, उसके लिये कृत्रिम पृथ्वी-मण्डल के उत्पाद की आवश्यकता नहीं है। वह चलमण्डलादिक प्राकृतिक पृथ्वी-मण्डल में ही निमित्त का ग्रहण कर लेता है। पर जिसको ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं है, उसे चार कसिण दोषों का परिहार करते हुए कृत्रिम पृथ्वी-मण्डल बनाना चाहिये। नील, पीत, लोहित, और अवदात (श्वेत) के संसर्गवश पृथ्वी-कसिण में दोष प्राप्त हो जाते हैं। नीलादि वर्ण दस कसिणों में परिगणित हैं। इनके संसर्ग से शुद्ध पृथ्वी-कसिण का उत्पाद नहीं होता। इसीलिये इन वर्गों की मृत्तिका का परित्याग बताया गया है। अत: पृथ्वी-मण्डल बनाते समय नीलादि वर्ण की मृत्तिका का ग्रहण न कर गङ्गा नदी की अरुण वर्ण की मृत्तिका काम में लानी चाहिये।
बिहार में जहाँ श्रामणेर आदि आते-जाते हों वहाँ मण्डल न बनाना चाहिये। विहार के प्रत्यन्त में, प्रच्छन्न स्थान में, गुहा या पर्णशाला में, पृथ्वी-मण्डल बनाना चाहिये। यह मण्डल दो प्रकार होता है-१. चल (संहारिम-चलनयोग्य) और २. अचल (तत्रट्ठक)। चार दण्डों में कपड़ा चमड़ा या चटाई बाँधकर उसमें साफ की हुई मिट्ठी का नियत प्रमाण का वृत्त (वर्तुल) लीप देने से चल-मण्डल बनता है। भावना के समय यह भूमि पर फैला दिया जाता है। पाकर्णिका के आकार में स्थाणु गाड़कर लताओं से उसे वेष्टित कर देने से अचलमण्डल बनता है। यदि अरुण वर्ण की मृत्तिका पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हो सके तो अधोभाग में दूसरी तरह की मिट्टी डालकर ऊपर के भाग में सुपरिशुद्ध अरुण वर्ण की मृत्तिका का एक बालिश्त चार अंगुल के विस्तार का वृत्त बनना चाहिये।
प्रमाण के सम्बन्ध में कहा गया है कि वृत्त शूर्पमात्र हो अथवा शरावमात्र । कुछ लोगों के मत में इन दोनों का सम प्रमाण है, पर कुछ का कहना है कि शराव (=प्याला) एक बालिश्त चार अंगुल का होता है और शूर्प का प्रमाण इससे अधिक है। इनके मत में वृत्त को शराव से कम और शूर्प से अधिक प्रमाण का न होना चाहिये। इस वृत्त को पत्थर से घिसकर भेरि-तल के सदृश सम करना चाहिये। स्थान साफ कर और स्नान कर मण्डल से ढाई हाथ की दूरी पर एक बालिश्त चार अङ्गल ऊँचे पैरोंवाले पीढ़े पर बैठना चाहिये। इससे अधिक अन्तराल पर बैठने से मण्डल नहीं दिखायी देगा और यदि इससे नीचे आसन पर बैठा जाय तो घुटने दर्द करने लगेंगे। इसलिये उक्त प्रकार के आसन पर ही बैठना चाहिये।
काम का दोष देखकर और ध्यान के लाभ को ही सा दुग के अतिक्रमण का उपार निक्षित कर नैष्कर्म्य के लिये प्रीति उत्पन्न करनी चाहिये। "बुस, प्रत्येकबुद्ध और आर्य भारतकों