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________________ अन्तरङ्गकथा ३५ विहार न मिले तो सब प्रकार के सन्देहों का निराकरण कर कर्मस्थान के अर्थ और अभिप्राय को भली प्रकार चित्त में प्रतिष्ठित कर कर्मस्थान को सुविशुद्ध करना चाहिये। तदनन्तर दूर जाकर भी समाधि - भावना के अनुरूप स्थान में निवास करना चाहिये । अठारह दोषों में से किसी एक से भी समन्वागत विहार समाधि भावना के अनुरूप नहीं होता। सामान्यतः योगी को महाविहार, नवविहार, जीर्णविहार, राजपथ - समीपवर्ती विहार आदि में निवास नहीं करना चाहिये। महाविहार में नानाप्रकार के भिक्षु निवास करते हैं। आपस के विरोध के कारण विहार का दैनिक कृत्य भलीभाँति सम्पादित नहीं होता। जब साधक भिक्षा के लिये बाहर जाता है और यदि वह देखता है कि कोई काम करने से रह गया है, तो उसे उस काम को स्वयं करना पड़ता है । न करने से वह दोष का भागी होता है और यदि करे तो समय नष्ट होता है, और विलम्ब हो जाने से उसको भिक्षा नहीं मिलती। यदि वह किसी एकान्त स्थान में बैठकर समाधि की भावना करना चाहता है तो श्रामणेर और तरुण भिक्षुओं के कोलाहल के कारण विक्षेप उपस्थित होता है। जीर्ण विहार में अभिसंस्कार का काम बराबर लगा रहता है। राजपथ के समीपवर्ती विहार में दिनरात आगन्तुक आया करते हैं। यदि विकाल में कोई आया तो अपना शयनासन भी देना पड़ता है। इसलिये वहाँ कर्मस्थान का अवकाश नहीं मिलता। यदि विहार के समीप पुष्करिणी हुई तो वहाँ निरन्तर लोगों का जमघट रहा करता है। कोई जल भरने आता है तो कोई चीवर धोने और रंगने आता है। इस प्रकार निरन्तर विक्षेप हुआ करता है। ऐसा विहार भी अनुपयुक्त है, जहाँ नाना प्रकार के शाक, पर्ण, फल या फूल के वृक्ष हो, वहाँ भी निवास नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसे स्थानों पर फल-फूलों के अभ्यर्थी निरन्तर करते हैं, न देने पर कुपित होते हैं, कभी-कभी हठ भी करते हैं, और समझाने बुझाने पर क्रुद्ध होते हैं और उस भिक्षु को विहार से निकालने की चेष्टा करते हैं ! किसी लोक-सम्मत स्थान में भी निवास न करना चाहिये। क्योंकि ऐसे प्रसिद्ध स्थान में यह समझकर कि यहाँ अर्हत् निवास करते हैं, लोग दूर-दूर से दर्शनार्थ आया करते हैं। इससे विक्षेप होता है । जो विहार नगर के समीप हो वह भी अनुरूप नहीं है, क्योंकि वहाँ निवास करने से कामगुणोपसंहित हीन शब्द कर्णगोचर होते हैं और असद् आलम्बन दृष्टिपथ में आपतित होते हैं। जिस विहार में वृक्ष होते हैं, वहाँ काष्ठहारक लकड़ी काटने आते हैं; जिससे ध्यान में विक्षेप होता है। जिस विहार के चारों ओर खेत हों वहाँ भी निवास न करना चाहिये। क्योंकि विहार के मध्य में किसान खलिहान बनाते हैं, धान पीटते हैं अन्य तरह के विघ्न उपस्थित करते हैं! जिस विहार में बड़ी सम्पत्ति लगी हो वहाँ भी विक्षेप हुआ करता है। लोग तरह तरह के आरोप लाते हैं और समय समय पर राजद्वार पर जाना पड़ता है। जिस विहार में ऐसे भिक्षु निवास करते हों जिनके विचार परस्पर न मिलते हों और जो एक दूसरे के प्रति वैरभाव रखते हों वहाँ सदा विध्न उपस्थित रहता है, वहाँ भी नहीं रहना चाहिये । साधक को दोषों से युक्त विहारों का परित्याग कर ऐसे विहार में निवास करना चाहिये जो भिक्षाग्राम से न बहुत दूर हो, न बहुत समीप; वहाँ आने-जाने की सुविधा हो, जहाँ दिन में लोगों का संघट्ट न हो, जहाँ रात्रि में बहुत शब्द न हो और जहाँ हवा, धूप, मच्छर, खटमल और सौप आदि रेंगनेवाले जानवरों की बाधा न हो; ऐसे विहार में सूत्र और विनय के जानने वाले भिक्षु निवास करते हैं। योग - जिज्ञासु उनसे प्रश्न करता है और वे उसके सन्देहों को दूर करते हैं।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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