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________________ विसुद्धिमग्ग में उक बारह आलम्बन तथा आनापानस्मृति की प्रवृत्ति नहीं होती। अरूपभव में चार आरूप्यों को छोड़कर किसी अन्य आलम्बन की प्रवृत्ति नहीं होती। - वायु-कसिण को छोड़कर बाकी नौ कसिण और दस अशुभ का ग्रहण दृष्टि द्वारा होता है। इसका अर्थ यह है कि पहले चक्षु से बार-बार देखने से निमित्त का ग्रहण होता है। कायगता स्मृति के आलम्बन का ग्रहण दृष्टि-श्रवण से होता है; क्योंकि त्वक् पञ्च का ग्रहण दृष्टि से और शेष का श्रवण से होता है। आनापान-स्मृति स्पर्श से, बायु-कसिण दर्शन-स्पर्श से, शेष अठारह श्रवण से गृहीत होते हैं। भावना के आरम्भ में योगी उपेक्षा, ब्रह्मविचार और चार आरूप्यों का ग्रहण नहीं कर सकता; पर शेष चौतीस आलम्बनों का ग्रहण कर सकता है। . ____ आकाश-कसिण को छोड़कर शेष नौ कसिण आरूप्यों में हेतु हैं; दस कसिण अभिज्ञा में हेतु हैं, पहले तीन ब्रह्मविहार चतुर्थ ब्रह्मविहार में हेतु हैं; नीचे के आरूप्य ऊपर के आरूप्य में हेतु हैं, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन निरोधसमापत्ति में हेतु है; और सब कर्मस्थान सुखविहार, विपश्यना और भवसम्पत्ति में हेतु हैं। रागचरित पुरुष के ग्यारह कर्मस्थान- दस असुभ और कायगतास्मृति-अनुकूल हैं; द्वेषचरित पुरुष के आठ कर्मस्थान-चार ब्रह्म-विहार और चार वर्णकसिण-अनुकूल हैं; मोह और वितर्कचरित पुरुष के लिये एक आनापानस्मृति ही अनुकूल हैं; श्रद्धाचरित पुरुष के लिये पहली छह अनुस्मृतियों, बुद्धिचरित पुरुष के लिये मरणस्मृति, उपशमानुस्मृति, चतुर्धातुव्यवस्थान और आहार के विषय में प्रतिकूलसंज्ञा-ये कर्मस्थान अनुकूल हैं। शेष कसिण और चार आलप्य सवचरित के पुरुषों के लिए अनुकूल हैं। कसिणों में जो क्षुद्र है वह वितर्कचरित पुरुष के लिये और जो अप्रमाण हैं वह मोहचरित पुरुष के अनुकूल है। जिसके लिये जो कर्मस्थान अत्यन्त उपयुक्त है उसका उल्लेख ऊपर किया गया है। ऐसी कोई कुशलभावना नहीं है जिसमें रागादि का परित्याग न हो और जो श्रद्धादि की उपकी न हो। मेषिय-सुत में भगवान् कहते हैं कि इन चार धर्मों की भावना करनी चाहिये- राग के नाश के लिये अशुभ-भावना, व्यापाद के नाश के लिये मैत्री-भावना, वितर्क के उपच्छेद के लिये आनापान-स्मृति की भावना और अहङ्कार-ममकार के समुद्धात के लिये अनित्य-संज्ञा की भावना। राहुल-सुत्त में भगवान् ने एक के लिये सात कर्मस्थानों का उपदेश किया है। इसलिये वचनमात्र में अभिनिवेश न रखकर सब जगह अभिप्राय की खोज होनी चाहिये। ४.पृथ्वीकसिण-निर्देश अब दस कसिणों का ग्रहण कर भावना किस प्रकार की जाती है? और ध्यानों का उत्पाद कैसे होता है?-इस पर विचार करेंगे। पृथ्वीकसिण-साधक को कल्याणमित्र के समीप अपनी चर्या के अनुकूल किसी कर्मस्थान का ग्रहण कर समाधि-भावना के अनुपयुक्त विहार का परित्याग कर अनुरूप विहार में वास करना चाहिये और भावना-विधान का किसी अंश में भी परित्याग न कर कर्मस्थान का आसेवन करना चाहिये। जिस विहार में आचार्य निवास करते हों यदि वहाँ समाधि-भावना की सुविधा हो तो वहीं रहकर कर्मस्थान का संशोधन करना चाहिये। यदि असुविधा हो तो आचार्य के विहार से अधिक से अधिक एक योजन की दूरी पर निवास करना चाहिये। यदि किसी विषय में सन्देह उपस्थित हो या स्मृति-संमोष हो तो विहार का दैनिक कृत्य सम्पादन कर आचार्य के समीप जाकर गृहीत कर्मस्थान का संशोधन करना चाहिये। यदि एक योजन के भीतर भी कोई उपयुक्त
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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