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अन्तरङ्गकथा के अन्तिम ध्यान में सुख का अतिक्रम होता है। अन्तिम ध्यान की समाधि उपेक्षा-सहगत होती है।
इस प्रकार तीन और चार ध्यानों के आलम्बन-स्वरूप कर्मस्थानों में ही अङ्ग का समतिक्रम होता है; क्योंकि वितर्क-विचारादि ध्यान के अङ्गों का अतिक्रम कर उन्हीं आलम्बनों में द्वितीयादि ध्यानों की प्राप्ति होती है। यही कथा चतुर्थ ब्रह्मविहार की है। मैत्री आदि आलम्बनों में सौमनस्य का अतिक्रमण कर चतुर्थ ब्रह्मविहार में उपेक्षा की प्राप्ति होती है। चार आरूप्यों में आलम्बन का समतिक्रमण होता है। पहले नौ कसिणों में से किसी-किसी का अतिक्रमण करने से ही आकाशानन्त्यायतन की प्राप्ति होती है। आकाश आदि का अतिक्रमण कर विज्ञानानन्त्यायतन आदि की प्राति होती है। शेष अर्थात् इक्कीस कर्मस्थानों में समतिक्रमण नहीं होता। इस प्रकार कुछ में अङ्ग का अतिक्रमण और कुछ में आलम्बन का अतिक्रमण होता
इन चालीस कर्मस्थानों में से केवल दस कसिणों की वृद्धि करनी चाहिये। क्योंकि जितना स्थान कसिण द्वारा व्याप्त होता है उतने ही अवकाश में दिव्य श्रोत्र से शब्द सुना जाता है, दिव्य चक्षु से रूप देखे जा सकते हैं और परचित्त का ज्ञान हो सकता है। परकायगता स्मृति और दस अशुभों की वृद्धि नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इससे कोई लाभ नहीं है। यह परिच्छिन्नाकार में ही उपस्थित होते हैं। इसलिये इनकी वृद्धि से कोई अर्थ नहीं निकलता। इनकी वृद्धि किये विना भी काम-राग का ध्वंस होता है। शेष कर्मस्थानों की भी वृद्धि नहीं करनी चाहिये। उदाहरण के लिये जो आनापान निमित्त की वृद्धि करता है, वह वातराशि की ही वृद्धि करता है और अवकाश भी परिच्छिन्न होता है। चार ब्रह्मविहारों के आलम्बन सत्त्व हैं। इनमें निमित्त की वृद्धि करने से सत्त्व-राशि की ही वृद्धि होती है और उससे कोई उपकार नहीं होता। कोई प्रतिभागनिमित्त नहीं है जिसकी वृद्धि की जाय। आरूप्य आलम्बनों में भी आकाश की वृद्धि नहीं करनी चाहिये; क्योंकि कसिण के अपगम से ही आरूप्य की प्राप्ति होती है। विज्ञान और नैवसंज्ञानासंज्ञायतन स्वभाव-धर्म हैं; इसलिये इनकी वृद्धि सम्भव नहीं है। शेष की वृद्धि इसलिये नहीं हो सकती क्योंकि ये अनिमित्त है। बुद्धानुस्मृति आदि का आलम्बन प्रतिभागनिमित्त नहीं है। इसलिये इनकी वृद्धि नहीं करनी चाहिये।
दस कसिण, दस अशुभ, आनापान-स्मृति, कायगतास्मृति-केवल इन बाईस कर्मस्थानों के आलम्बन प्रतिभाग-निमित्त होते हैं। शेष आठ स्मृतियाँ, आहार के विषय में प्रतिकूल-संज्ञा और चतुर्धातु व्यवस्थान, विज्ञानानन्त्यायतन, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन- इन बारह कर्मस्थानों के आलम्बन स्वभाव-धर्म हैं। उक्त दस कसिण आदि बाईस कर्मस्थानों के आलम्बन निमित्त हैं। शेष छह-चार ब्रह्म-विहार, आकाशानान्त्यायतन और आकिञ्चन्यायतन के आलम्बनों के सम्बन्ध में न तो यही कहा जा सकता है कि वे निमित्त हैं और न यही कहा जा सकता है कि वे स्वभावधर्म हैं।
विपुल्वक लोहितक, पुलुवक, आनापान-स्मृति, अपकसिण, तेजकसिण, वायुकसिण और आलोककसिणों में सूर्यादि से जो अवभास-मण्डल आता है-इन आठ कर्मस्थानों के आलम्बन चलित हैं; पर प्रतिभाग-निमित्त स्थिर हैं। शेष कर्मस्थानों के आलम्बन स्थिर हैं। ___ मनुष्यों में सब आलम्बनों की प्रवृत्ति होती है। देवताओं में दस अशुभ, कायगतास्मृति और आहार के विषय में प्रतिकूल-संज्ञा-इन बारह आलम्बनों की प्रवृत्ति नहीं होती। ब्रह्मलोक